पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 13.pdf/३४७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
३१३
भाषण: म्योर कॉलेज, इलाहाबादमें

निश्चय ही आप लोग आगामी १२ तारीखको रायबहादुर पं० चन्द्रिकाप्रसादका भाषण सुनकर अधिक तृप्तिका अनुभव करेंगे।

मेरे निजी अनुभवों और प्रयोगोंको सुननेके पूर्व यह उचित होगा कि हम लोग पहले आजके व्याख्यानके शीर्षकके अर्थके बारेमें आपसमें सहमत हो लें। हमारे व्याख्यानका विषय है: “क्या आर्थिक उन्नति वास्तविक उन्नतिके विपरीत बैठती है?” मेरा खयाल है कि आर्थिक उन्नतिका अर्थ हम “सीमा-विहीन भौतिक प्रगति” लगाते हैं और वास्तविक उन्नति को हम “नैतिक प्रगति” का पर्याय मानते हैं। यह नैतिक प्रगति हमारे ऊपर अन्तरमें रहनेवाले शाश्वत अंशके विकासके सिवा और क्या है? अतएव प्रस्तुत विषयको दूसरे शब्दों में इस प्रकार रखा जा सकता है: क्या नैतिक उन्नति उसी अनुपातमें नहीं हुआ करती जिस अनुपातमें भौतिक उन्नति होती है? मैं जानता हूँ कि यह विषय प्रस्तुत विषयकी अपेक्षा अधिक व्यापक है, परन्तु मेरा खयाल है कि छोटे प्रश्नको उठाते समय भी हमारा अभिप्राय बड़े प्रश्नसे ही रहा करता है। हममें विज्ञानकी इतनी जानकारी जरूर है कि हमारे इस गोचर विश्वमें पूर्ण गतिशून्यता-जैसी कोई वस्तु नहीं है। इसलिए यदि भौतिक उन्नति नैतिक प्रगतिके विरोधमें नहीं पड़ती तो वह उसके विकासमें सहायक हुए बिना नहीं रह सकती। और फिर अपनेको बृहत्तर समस्याका समर्थन करनेमें असमर्थ पानेवाले व्यक्ति कभी-कभी जिस भद्दे ढंगसे अपनी बात सामने रखते हैं हमें उससे भी सन्तोष नहीं हो सकता।

स्वर्गीय सर विलियम विल्सन हंटरने कहा है कि भारतमें तीन करोड़ व्यक्ति केवल एक वक्त खाकर बसर करते हैं――मालूम होता है कि लोग इसी कथनको इतना सत्य मान बैठे हैं कि दूसरी कोई बात उनके दिमागोंमें घुस ही नहीं सकती। वे कहते हैं कि लोगोंकी नैतिक उन्नतिकी बात सोचने या उसका जिक्र करनेके पहले हमें उनकी रोज-रोजकी जरूरतें पूरी करनी चाहिए। उनका कहना है कि इनके लिए भौतिक उन्नति ही उन्नति है। इसके बाद वे एकदम एक लम्बी छलाँग लगाकर इस निष्कर्षपर जा पहुँचते हैं कि जो बात ३ करोड़के बारेमें सत्य है वही समस्त संसारके लिए भी है। वे भूल जाते हैं कि अपवादरूप मामलोंके आधारपर कोई नियम निर्धारित नहीं किया जा सकता। यह कहना आवश्यक नहीं है कि यह निष्कर्ष कितना गलत है और हास्यास्पद है। यह तो आजतक किसीने भी नहीं कहा कि अतिशय दरिद्रता नैतिक पतनके अतिरिक्त कुछ और दे सकती है। प्रत्येक मनुष्यको जीवित रहनेका अधिकार और इसलिए उसे पेट भरनेके लिए भोजन तथा आवश्यकतानुसार तन ढकनेके लिए वस्त्र और रहनेके लिए मकान मुहैया करनेका अधिकार है। परन्तु इस बिलकुल मामूलीसे कामके लिए हमें अर्थशास्त्रियों अथवा उनके द्वारा गढ़े गये विषयोंकी मददकी जरूरत नहीं है।

संसारके सभी धर्म-ग्रंथों में इस आशयके आदेश मिलते हैं कि ‘कलकी चिन्ता मत करो।' किसी भी सुव्यवस्थित समाजमें रोजी कमाना सबसे सुगम बात होनी चाहिए और हुआ करती है। निस्सन्देह किसी देशकी सुव्यवस्थाकी पहचान यह नहीं है कि उसमें कितने लखपति लोग रहते हैं बल्कि यह कि जनसाधारणका कोई भी व्यक्ति भूखों तो नहीं मर रहा है। अब केवल यही बात देखनी रह जाती है कि भौतिक