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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

उन्नतिका अर्थ ही नैतिक उन्नति है――यह सब जगह और सब समयमें लागू होनेवाला नियम माना जा सकता है या नहीं।

आइये अब कुछ दृष्टान्त लें। भौतिक उन्नतिके उच्च शिखर तक पहुँचते ही रोमन लोगोंका नैतिक पतन आरम्भ हो गया। मिस्र देशमें भी यही हुआ। और कदाचित् उन सभी देशोंमें भी, जिनका इतिहास हमें उपलब्ध है, ऐसा ही हुआ है। परमात्माकी विभूतियोंसे विभूषित कृष्णचन्द्रजी महाराजके कुटुम्बियोंका――यादवोंका भी, जब वे खूब दौलतमन्द होकर गुलछरें उड़ाने लगे, पतन हो गया। अमेरिकाके प्रसिद्ध धनी रॉकफैलर और कारनेगी या ऐसे ही दूसरे लोगोंमें सामान्य नैतिकताका अभाव है ऐसा मैं नहीं कह रहा हूँ, परन्तु हम लोग उनके अवगुणोंकी ओर ध्यान न देकर उनकी प्रशंसा ही किया करते हैं। मेरे कहनेका मतलब यह है कि हम उनसे नैतिकताकी कड़ीसे-कड़ी कसौटीपर खरे उतरनेकी आशा भी नहीं करते। उनके लिए भौतिक उन्नतिका अनिवार्य परिणाम नैतिक उन्नति नहीं हुआ। दक्षिण आफ्रिकामें मुझे अपने हजारों देशवासियोंके निकट सम्पर्कमें आनेका सौभाग्य प्राप्त था; मैंने वहाँ लगभग सदा यही देखा कि आर्थिक दृष्टिसे जो जितना सम्पन्न होता था उसका नैतिक स्तर गया गुजरा होता था। और कुछ नहीं तो इतना तो कहा ही जा सकता है कि सत्याग्रहके हमारे नैतिक संघर्षको गरीबोंसे जितना बल मिला, उतना अमीरोंसे नहीं। यहाँकी स्थितिको देखकर धनाढ्य लोगोंके स्वाभिमानको वैसी ठेस नहीं लगती थी जैसी निर्धनसे-निर्धन व्यक्तियोंके हृदयोंको पहुँचती थी। वैसे तो मैं अपने देशके ही दृष्टान्त देकर आपके सामने यह प्रमाणित कर देता कि धन-सम्पत्तिका बाहुल्य व्यक्तियोंकी वास्तविक उन्नतिके मार्गमें बाधक हुआ है। किन्तु वैसा करना खतरेसे खाली नहीं है। मेरा खयाल है कि अर्थशास्त्र सम्बन्धी नियमोंके बारेमें अर्थशास्त्रके बदले हमारे धर्मग्रन्थ हमारा अधिक उचित मार्गदर्शन करते हैं। आज जिस प्रश्नकी चर्चा हम कर रहे हैं वह नया नहीं है। दो हजार वर्ष पूर्व ईसा मसीहसे भी वही प्रश्न पूछा गया था। संत मार्कने उस दृश्यका बड़ा सजीव चित्रण किया है। ईसा सामने विराजमान हैं, उनका भाव शान्त, उदार है और मुद्रा धीर-गम्भीर। वे अमरताके सम्बन्धमें कुछ कहते हैं। अपने आसपासके संसारका उनको पूरा ज्ञान है। वे स्वयं अपने कालके सबसे बड़े अर्थशास्त्री हैं। देश और कालको नाथकर, उसका अधिकतम सदुपयोग करके, वे देश और कालसे ऊपर उठ चुके हैं। ऐसे सर्व-सम्पन्न (परमश्रेष्ठ) ईसाके पास एक जिज्ञासु हाँफता हुआ आता है, घुटने टेककर नमन करता और पूछता है:

“हे कृपासिन्धु प्रभु, बताइये मैं किस रास्ते चलूँ कि मैं अविनाशी जीवनकी विरासत पा जाऊँ?” ईसाने उससे कहा: “तुम मुझे कृपासिन्धु क्यों कहते हो? एकको छोड़कर और कोई कृपासिन्धु है ही नहीं――और वह है परमात्मा। तुम धर्मानुशासनों (कमांडमेंट्स) से परिचित हो। व्यभिचार मत करो, जीवह्त्या मत करो, चोरी मत करो, झूठी गवाही मत दो, किसीके साथ कपटका व्यवहार मत करो, अपने माता-पिताका आदर करो। ”उस व्यक्तिने उत्तरमें कहा, “प्रभो! इन सब उपदेशोंपर मैंने युवावस्थासे ही आचरण किया है।” इसपर ईसाने उसे धन्यवाद दिया। उन्होंने उसपर स्नेह वर्षा करते हुए कहा――“तुममें एक बातकी कमी रह गई है: लौट जाओ, जो कुछ तुम्हारे पास है उसे बेच डालो और इस प्रकार प्राप्त धनको गरीबोंमें बांट दो, तो तुम्हें स्वर्गको