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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

मालिकोंका ही दोष नहीं है। बागान-मालिक अंग्रेज हैं। भारतीय जमींदार उनसे जरा भी बेहतर नहीं हैं, और उनमें से कुछ तो कहीं ज्यादा बुरे हैं। निःसन्देह इस मामलेकी सार्वजनिक कार्यकर्ताओंको इतनी जानकारी नहीं थी इसीलिए यह गलत काम इतने दिनों तक चलता रहा। बिना दबावके सरकारके कानपर जूँ नहीं रेंगती।

निःसन्देह तुम्हारे लिए अन्य सभी भाषाओंसे तमिल पहले है। परन्तु यदि तुम देवनागरी लिपि सीख लो तो उससे बहुत सहायता मिले। यह आसान है और इस अर्थमें संसारकी सर्वाधिक सम्पूर्ण वर्णमाला है कि प्रत्येक वर्ण केवल एक ध्वनिको व्यक्त करता है और इस लिपिमें लगभग सभी ध्वनियाँ आ जाती हैं।

तुम्हारा,
बापू

[अंग्रेजीसे]
माई डियर चाइल्ड

३२६. हिन्दीका प्रचार[१]

हिन्दी ही हिन्दुस्तानके शिक्षित समुदायकी सामान्य भाषा हो सकती है, यह बात निविवाद सिद्ध है। यह कैसे हो, केवल यही विचार करना है। जिस स्थानको आजकल अंग्रेजी भाषा लेनेका प्रयत्न कर रही है और जिसे लेना उसके लिए असम्भव है, वही स्थान हिन्दीको मिलना चाहिए; क्योंकि हिन्दीका उसपर पूर्ण अधिकार है। यह स्थान अंग्रेजीको नहीं मिल सकता; क्योंकि वह विदेशी भाषा है और हमारे लिए बड़ी कठिन है। अंग्रेजीकी अपेक्षा हिन्दी सीखना बहुत सरल है। हिन्दी बोलनेवालोंकी संख्या प्रायः साढ़े छः करोड़ है। बॅगला, बिहारी, उड़िया, मराठी, गुजराती, राजस्थानी, पंजाबी और सिन्धी हिन्दीकी बहनें हैं। उक्त भाषाओंके बोलनेवाले थोड़ी बहुत हिन्दी समझ तथा बोल लेते हैं। इन सबको मिलानेसे संख्या प्रायः २२ करोड़ हो जाती है। जिस भाषाका इतना प्रचार है उसकी बराबरी करनेके लिए अंग्रेजी, जिसे एक लाख भी हिन्दुस्तानी ठीक-ठीक नहीं बोल सकते, क्योंकर समर्थ हो सकती है। आजतक हमारा देशी काम और व्यवहार हिन्दीमें प्रारम्भ नहीं हो पाया, इसका कारण हमारी भीरुता, अश्रद्धा और हिन्दी भाषाके गौरवका अज्ञान है। यदि हम भीरुता छोड़ दें, श्रद्धावान् बनें, हिन्दीका गौरव समझ लें तो हमारी राष्ट्रीय और प्रान्तिक परिषदों तथा सरकारी व्यवस्था-सभाओंका

भी व्यापार हिन्दीमें चलने लगेगा। आरम्भ प्रान्तिक राष्ट्रीय मण्डलोंसे होना आवश्यक है। इस कार्यमें यदि कुछ कठिनता भी है तो वह प्रायः तमिल आदि द्राविड़ भाषा-भाषियोंके लिए है, पर इसकी भी औषधि हमारे हाथमें है। हिन्दीके उत्साही, साहसी, स्वाभिमानी, जोशीले पुरुषोंको बिना मूल्य हिन्दीकी शिक्षा देनेके लिए मद्रास आदि प्रान्तोंमें भेजा जाना चाहिए। वे हिन्दीके पराक्रमी प्रचारक बन जायें तो अल्प काल ही में मद्रास आदि प्रान्तोंके शिक्षित हिन्दी सीख लेंगे। यदि हममें उचित जोश हो

  1. १. यह लेख मई १९१७ में कई समाचारपत्रों में प्रकाशनार्थं भेजा गया था।