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२९. भाषण : शांतिनिकेतनके स्वागत-समारोह में

फरवरी १७, १९१५

आज मुझे जो आनन्द हो रहा है उसका मैंने पहले कभी अनुभव नहीं किया । यद्यपि गुरुदेव रवीन्द्रनाथ' यहाँ उपस्थित नहीं हैं तथापि अपने हृदयोंमें हम उन्हें विद्यमान पाते हैं। विशेष आनन्द मुझे यह देखकर हो रहा है कि आपने स्वागत समारोहकी व्यवस्था भारतीय ढंगपर रखी है। बम्बईमें हम लोगोंका बड़ी धूमधामसे स्वागत हुआ था परन्तु उसमें हमें सुख देनेवाली कोई बात नहीं थी, क्योंकि वहाँ पूरी तरहसे पाश्चात्य तरीकोंकी नकल की गई थी; हम अपनी पूर्वकी पद्धतिसे ही अपने लक्ष्यपर पहुँचेंगे, न कि पश्चिमकी नकल करनेसे; क्योंकि हम पूर्वके हैं। हम भारतके शोभनीय आचार-व्यवहारके सहारे विकास करेंगे और उसकी भावनाके प्रति सच्चे रहकर विभिन्न आदर्श रखनेवाले राष्ट्रोंसे मैत्री रखेंगे। निश्चय ही अपनी प्राचीन संस्कृतिके द्वारा भारत पूर्वी और पश्चिमी राष्ट्रोंसे मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध स्थापित करेगा। मैं आज बंगालके इस आश्रमके प्रति आत्मीयताका अनुभव करता हूँ। मैं आपके लिए कोई अजनबी नहीं हूँ। सुदूर आफ्रिकी देश भी मुझे प्रिय लगते थे क्योंकि वहाँके भारतीयोंने अपने राष्ट्रीय रीति-रिवाजोंको नहीं छोड़ा है।

[ अपने भाषणके अन्त में गांधीजीने श्रोताओंको धन्यवाद दिया।]

[ अंग्रेजीसे ]

तत्त्वबोधिनी पत्रिका के फरवरी १९१५ के अंकमें प्रकाशित बँगला-विवरणसे ।




१. आश्रमवासियों द्वारा आयोजित ।

२. रवीन्द्रनाथ ठाकुर (१८६१-१९४१); कवि और कलाकार; जिन्हें अपनो काव्य-पुस्तक गीतांजलि पर १९१३ में नोबेल पुरस्कार मिला था ।