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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

लोग ठीक समयपर अपनी उधारी या रुक्केकी रकम चुका देते हैं। ऋणकी प्रथाने हमारे इस सुन्दर संसारको उसी तरह घेर लिया है जिस तरह साँप कुंडली बनाकर किसी चीजको घेर लेता है; और हमारे असावधान होते ही वह हमें कुंडलीमें जकड़कर हमारा दम घोट डालता है। इस प्रथाके कारण मैंने बहुत-से घरोंको बरबाद होते देखा है। ऋणपर सहकारी होनेकी छाप लगी है, या नहीं इससे कोई अन्तर नहीं पड़ता। इसी प्राण-लेवा कुंडलीकी करामातसे यूरोपमें विनाशका दृश्य उपस्थित हो गया है; और हम लोग उसे असहाय होकर देख रहे हैं। मुकदमेबाजी और युद्धमें उसीकी जीत होती है जिसके पास धन अधिक होता है। यह बात जितनी ठीक उतरती हुई आज दिखाई देती है उतनी कदाचित् पहले कभी नहीं दिखाई दी। ऋणके सम्बन्धमें लोगोंका आजकल जो विश्वास है उसे महत्त्व देनेका साहस मैंने केवल इस मुद्देपर जोर देनेके लिए किया है कि सहकारिताका आन्दोलन भारतके लिए उसी हद तक हितकर होगा जिस हद तक वह नैतिक आन्दोलन रहेगा और उसका केवल इस मुद्देपर जोर देनेके लिए किया है कि सहकारिताका आन्दोलन भारतके लिए उसी हद तक हितकर होगा जिस हद तक वह नैतिक आन्दोलन रहेगा और उसका संचालन पूर्ण धार्मिक लगनके लोगों द्वारा होगा। इससे निष्कर्ष यह निकलता है कि सहकारिताको केवल उन्हीं लोगों तक सीमित रखना चाहिए जो नैतिक दृष्टिसे ठीक रहना चाहते हों परन्तु अति दरिद्र होने अथवा महाजनके चंगुलमें फँसे होनेके कारण नैतिक दृष्टिसे ठीक नहीं रह पाते। उचित ब्याजपर ऋण मिलनेका सुभीता प्राप्त हो जानेसे नीति-भ्रष्ट मनुष्य नीतिमान् नहीं हो जायेंगे; परन्तु राज्यके कर्मचारियों या परोपकार-परायण लोगोंकी बुद्धिमत्ता तो इसीमें है कि वे ऐसे लोगोंको आगे बढ़ने में सहायता दें जो सज्जन बननेका प्रयत्न कर रहे हों।

प्रायः हम लोगोंका यही विश्वास रहता है कि आर्थिक सम्पन्नतासे नैतिक उत्थान होता है; यह आवश्यक है कि जो आन्दोलन भारतके लिए इतना हितकारी है वह ऐसा भ्रष्ट होकर लोगोंको थोड़े सूदपर ऋण देनेका आन्दोलन मात्र न रह जाये। इसीलिए मुझे भारतीय सहकारिता समितिकी रिपोर्ट में यह सिफारिश पढ़कर प्रसन्नता हुई थी कि

वे लोग [समितिके सदस्य] स्पष्ट रूपसे अपनी यह सम्मति प्रकट कर देना चाहते हैं कि यदि सरकार सर्व-साधारणको दशा सुधारना चाहती है तो उसे केवल सच्ची सहकारिताका, ऐसी सहकारिताका जिसमें इस प्रश्नके नैतिक स्वरूपका खयाल रखा गया हो――आश्रय लेना चाहिए; ऐसी दिखावटी सहकारिताका नहीं जिसका निर्माण सहकारिताके सिद्धान्तोंको बिना जाने हुए ही किया गया हो।

उस मानदण्डको अपने सामने रखते हुए, संगठित सहकारी समितियोंकी संख्या मात्रसे ही हम इस आन्दोलनकी सफलताका माप नहीं करेंगे, बल्कि उसके सदस्यों की नैतिक ऊँचाईसे करेंगे। इस अवस्थामें रजिस्ट्रार लोग उन समितियोंकी संख्या बढ़ानेसे पहले प्रस्तुत समितियोंकी नैतिक उन्नति करेंगे। और सरकार उन रजिस्ट्रारोंकी पद-वृद्धि यह देखकर नहीं करेगी कि उन्होंने कितनी समितियोंकी रजिस्ट्री की है, बल्कि यह देखकर करेगी कि प्रस्तुत संस्थाओंको कितनी नैतिक सफलता मिली है। इसका अर्थ यह कि इस बातका पता लगाना होगा कि सदस्योंको दिया हुआ पैसा किस