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सहकारिताका नैतिक आधार

काममें लगता है। जिन लोगोंपर सहकारी समितियोंके उचित संचालन करनेका उत्तरदायित्व है वे इस बातका ध्यान रखेंगे कि जो रुपया उधार दिया गया है वह ताड़ी विक्रेताओंकी संदूकचीमें या जुएखानोंके मालिकोंकी जेबमें न चला जायेगा। यदि किसानका घर ताड़ी या जुएसे बच गया तो मैं महाजनको उसके लोभके लिए क्षमा कर दूँगा।

महाजनोंके सम्बन्धमें भी यहाँ कुछ कहना कदाचित् अनुचित न होगा।सहकारिता कोई नई तरकीब नहीं है। जो बन्दर या पक्षी किसानोंकी फसल नष्ट करते हैं उन्हें होहल्ला करके भगानेके लिए वे सहकारका ही आश्रय लेते हैं। अनाज-गाहनेके लिए वे एक ही खलिहानका उपयोग करनेमें सहकार करते हैं। मैंने देखा है कि वे अपने पशुओंके रक्षार्थ उनके चरनेके लिए अच्छीसे-अच्छी जमीन छोड़कर सहकार करते हैं। और किसी विशेष रूपसे लोभी महाजनका विरोध करनेके लिए भी वे लोग सहकार करते हुए देखे गये हैं। किसान मजबूतीसे महाजनकी मुट्ठीमें जकड़े हुए हैं, इसी कारण कुछ.लोग सन्देह करते हैं कि सहकारिता कदाचित् सफल नहीं हो सकेगी। परन्तु मुझे इस प्रकारका कोई भय नहीं है। बड़ेसे-बड़ा शक्तिशाली महाजन भी, यदि दुष्ट हो तो उसे सहकारिताके सामने, जिसकी कल्पना मुख्यतः नैतिक आन्दोलनके रूपमें की गई है, झुकना पड़ेगा। किन्तु मुझे चम्पारनके महाजनोंका जो थोड़ा-सा अनुभव है उससे मुझे यह सर्वसामान्य मत बदलना पड़ा है कि उनका “प्रभाव बहुत ही विनाशक” होता है । मैंने उन्हें सदा निर्दयी ही नहीं पाया है और न पाई-पाई वसूल करते ही देखा है। वे अपने असामियोंकी अनेक प्रकारसे सहायता करते हैं और संकट के समय उनकी रक्षा भी करते हैं। वैसे मेरा अवलोकन क्षेत्र इतना छोटा है कि मैं उस अवलोकनके बलपर किसी प्रकारका परिणाम निकालनेका साहस नहीं करता; किन्तु मैं बहुत ही आदर-पूर्वक यह पूछता हूँ कि क्या महाजनोंके अन्तरकी अच्छाईको उभारकर उन्हें अपने दोषोंको निकाल फेंकनेकी दिशामें सहायता पहुँचानेका मन लगाकर कोई प्रयत्न करना भव नहीं है? क्या उन्हें भी सरकारी-सेनामें सम्मिलित होनेके लिए तैयार नहीं किया जा सकता; अथवा क्या अनुभवसे यह प्रमाणित हो गया है कि वे ऐसी प्रार्थनाके योग्य ही नहीं हैं?

मैं देखता हूँ कि यह आन्दोलन सब देशी उद्योगोंका ध्यान रखता है। जुलाहोंकी दशा सुधारनेके मेरे नम्र प्रयत्नमें सरकारने मुझे जो सहायता दी है उसके लिए मैं खुले-आम उसके प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट करता हूँ। मैं जो प्रयोग कर रहा हूँ उससे पता लगता है कि इस सम्बन्धमें कार्य करनेके लिए बहुत बड़ा क्षेत्र है। जुलाहोंके आसन्न सर्वनाशके प्रति भारतका कोई भी शुभचिन्तक, कोई भी देशहितैषी उदासीन नहीं रह सकता। जैसा कि डॉ० मैने कहा इस व्यवसायसे कृषकोंको जीविकाका एक अतिरिक्त साधन मिल जाता था और वह अकालसे सुरक्षित रहता था। जो रजिस्ट्रार इस महत्त्वपूर्ण और श्रेष्ठ शिल्पको फिरसे जीवन प्रदान करेगा, भारत उसका कृतज्ञ होगा। मेरे विनम्र प्रयत्नके तीन अंग हैं――प्रथम, इस बातकी जाँच करना कि क्या पुराने ढंगके हाथकरघोंमें कोई सीधा-सादा सुधार किया जा सकता है; दूसरे शिक्षित युवकोंको सरकारी या दूसरी नौकरियोंके मोह और इस धारणासे विरत करना कि

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