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मगनलाल गांधीको लिखे पत्रका अंश

ढक सकता हूँ, फिर भी मैं दो वस्त्र पहनूं तो इस तरह मैंने दूसरा वस्त्र चुराया है, क्योंकि जिस वस्त्रका उपयोग दूसरा व्यक्ति कर सकता है वह मेरा नहीं है। यदि मैं पाँच केलोंसे अपना गुजारा कर सकता हूँ तो मेरा छठा केला खाना चोरी है। मान लो हमने सबकी जरूरतका खयाल करके ५० नीबू रखे हैं। मुझे जरूरत केवल दो नीबुओंकी है; किन्तु चूंकि नीबू अधिक हैं इसलिए मैं तीसरा नीबू ले लेता हूँ। यह चोरी हुई।

इस प्रकार वस्तुओंके अधिक उपयोगसे अहिंसा-व्रत भंग होता है। यदि हम अस्तेय भावसे इन वस्तुओंका उपयोग कम करें तो हममें उदारता बढ़ेगी। यदि हम अहिंसा- भावसे उपयोग कम करें तो दया-भाव बढ़ेगा। यदि हम जीव मात्रको अभय दें तो इसमें दया और प्रेमका भाव आता है। जो अपना भाव ऐसा बना लेगा उससे कोई भी जीव स्वप्नमें भी वैर-भाव न मानेगा। यह शास्त्रोंका विशेष निष्कर्ष है। मेरा अनुभव भी यही है।

इन सब व्रतोंका सूत्र सत्य है । यह हो सकता है, अपने मनको धोखा देकर की हुई चोरीको लोग चोरी न मानें । इसी प्रकार मनुष्य अपने मनको धोखा देकर किये गये परिग्रहको अपरिग्रह समझ सकता है। अर्थात् हम पग-पगपर सूक्ष्म विचार करते हुए सत्यका पालन कर सकते हैं। किसी वस्तुका संग्रह किया जाये या नहीं हम इस सम्बन्ध में जब शंका हो तो सीधा नियम यही है कि संग्रह न किया जाये। त्यागमें सत्यका भंग नहीं होता । जहाँ यह शंका हो कि बोलना चाहिए या नहीं वहाँ सत्यव्रती का कर्त्तव्य है कि वह मौन धारण कर ले।

मैं यह चाहता हूँ कि तुम केवल उन्हीं व्रतोंको लो जिन्हें तुम स्वतन्त्र रूपसे ले सको । इन व्रतोंको लेनेकी जरूरत मुझे सदा अनुभव होती है। किन्तु तुममें से प्रत्येक व्यक्ति तभी व्रत ले जब वह उसे स्वयं सूझे और जिसकी आवश्यकता उसे स्वयं अनुभव हो।

रामचन्द्रजी चाहे जितने वीर क्यों रहे हों, उन्होंने कैसा ही पराक्रम क्यों न दिखाया हो और लाखों राक्षसोंका वध क्यों न किया हो, किन्तु यदि उनके पीछे लक्ष्मण और भरत-जैसे भक्त भाई न होते तो आज रामको कोई जानता भी नहीं। सारांश यह है कि रामचन्द्रजीमें केवल असाधारण क्षात्र-तेज ही होता तो उनकी कीर्ति काला- न्तरमें समाप्त हो जाती। राक्षसोंका संहार करनेवाले उनके जैसे अनेक वीर हो गये हैं। उनमें से किसीकी कीर्ति आज घर-घरमें नहीं गाई जाती । रामचन्द्रजीमें कुछ विशेष तेज था और वे उस तेजको लक्ष्मण और भरतमें उतार सके थे। इसलिए लक्ष्मण और भरत महान् तपस्वी हुए। उनके इसी तपका माहात्म्य गाते हुए तुलसीदासने कहा है कि महान् मुनियोंके लिए भी जो तप अगम है ऐसा तप करनेवाले भरत-जैसे तपस्वी न जन्मे होते तो मुझ जैसे मूढ़को रामका दर्शन कौन कराता ? इसका अर्थ यह हुआ कि रामके-यश अथवा उनकी शिक्षाओंके रक्षक लक्ष्मण और भरतजी हैं। फिर तप ही सब-कुछ नहीं है, क्योंकि आहार और निद्राका चौदह वर्ष तक त्याग जैसे लक्ष्मणने किया था वैसे ही इन्द्रजितने भी किया था। किन्तु लक्ष्मणको रामचन्द्रजीसे तपका जो मर्म प्राप्त हुआ था इन्द्रजित् उससे वंचित था। इतना ही नहीं, उसकी वृत्ति तपका दुरुपयोग