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४४. मगनलाल गांधीको लिखे पत्रका अंश

[मार्च १४, १९१५ के बाद]

अहिंसाके सम्बन्धमें तुम्हारा खयाल ठीक है। दया, अक्रोध, अमानित्व आदि इसके अंग हैं। सत्याग्रहका मूल आधार अहिंसा धर्म है। इसका स्पष्ट दर्शन मुझे कलकत्तेमें हुआ। मैंने वहाँ सोचा कि हमें अपने दूसरे व्रतोंमें इसे भी शामिल कर लेना चाहिए। इस विचारसे यह निष्कर्ष निकला कि हमें समस्त यमोंका ही पालन करना चाहिए और हम व्रत-रूपमें इनका पालन करते हुए उनकी सूक्ष्म महत्ताको देख सकते हैं। यहाँ मैं सैकड़ों लोगोंके साथ बातचीत करता हूँ और उसमें समस्त यमोंको सबसे प्रमुख स्थान देता हूँ ।

सिय-राम-प्रेम- पियूष-पूरन होत जनमु न भरतको ।

मुनि-मन- अगम यम नियम सम दम विषम व्रत आचरत को ।

यह छन्द मुझे कलकत्तेमें इस अवसरपर याद आया और मैंने उसपर बहुत विचार किया। इन व्रतोंके पालनसे ही भारतकी और हमारी मुक्ति होनी है, यह मुझे स्पष्ट दिखाई देता है।

अपरिग्रहका पालन करते समय ध्यान में रखने योग्य बात यह है कि हम किसी अनावश्यक वस्तुका संग्रह न करें। खेती करते हुए हमें बैल चाहिए तो हम बैलों और उनके लिए आवश्यक सामग्रीका संग्रह करेंगे। जहाँ सदा अकालका भय रहता है वहाँ हम अन्न संचित करके रखेंगे किन्तु इस प्रश्नपर सदा ही विचार करना होगा कि बैलोंकी और अन्नकी आवश्यकता है या नहीं। हमें समस्त यमोंका पालन मनसे भी करना है। इससे हम उनमें दिन-प्रति-दिन दृढ़ होते जायेंगे और हमें नये त्याग सूझते जायेंगे । त्यागकी तो सीमा नहीं है। हम जितना अधिक त्याग करते जायेंगे हमारा आत्मदर्शन उतना ही अधिक होता जायेगा । मनकी गति परिग्रहके त्यागकी ओर हो और यदि हम अपनी शारीरिक सामर्थ्यके अनुसार त्याग करें तो यही समझा जायेगा कि हमने अपरिग्रहका पालन किया है।

यही बात अस्तेयके सम्बन्धमें है। अनावश्यक वस्तुओंके संग्रहका प्रश्न अपरिग्रहके अन्तर्गत आता है और उनके उपयोगका प्रश्न अस्तेयके अन्तर्गत । मैं एक वस्त्रसे शरीर

१. यह पत्र गांधीजीने भारतमें आनेके बाद अपनी शान्तिनिकेतन और कलकत्तेकी प्रथम यात्राके बाद लिखा होगा क्योंकि इसमें कलकत्ते और गुरुदेवका उल्लेख है। गांधीजी कलकत्तेसे १४ मार्च, १९१५ को रवाना हुए थे।

२. छन्दको दूसरी दो पंक्तियाँ इस प्रकार हैं :

दुःख दाह दारिद दम्भ दूषन सुजस मिस अपहरत को

कलिकाल तुलसीसे सठन्छि छठि राम सनमुख करत को।

तुलसीकृत रामचरितमानस: अयोध्याकाण्ड