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सम्पूर्ण गांधी वाङ‍्मय

मेरे विचार बदल जायेंगे।[१] इस सम्बन्धमें मुझे इतना ही कहना है कि यदि कभी ऐसा समय आयेगा, तो उसके पहले मैं हिन्दू धर्म ही नहीं, संसारके धर्म-मात्रका त्याग कर चुकूँगा। परन्तु मेरी यह दृढ़ धारणा है कि हिन्दू धर्मको पूर्वोक्त कलंकसे मुक्त करनेमें यदि अपना शरीर भी देना पड़े, तो भी यह कोई बड़ी बात नहीं है। जिस धर्ममें नरसी मेहता-जैसे समदर्शी भगवद्भक्त हो गये हों उसमें अस्पृश्यताको भावनाका रह सकना कदापि सम्भव नहीं है।

बापू और हरिजन

२२. भाषण : मुजफ्फरपुरमें[२]

नवम्बर ११,१९१७

भाइयो,

मेरा इरादा तो आपसे केवल तीन बातें कहनेका ही था परन्तु यहाँ स्टेशनपर जो हाल देखा उसके कारण उनमें एक बात और जुड़ जाती है। मैं जहाँ भी जाता हूँ, लोग, प्रेमके वशीभूत होकर, मेरी ओर कुछ ऐसे उमड़ते आते हैं और हुल्लड़ मचाते हैं कि मैं विमूढ़ हो उठता हूँ। ऐसी भीड़-भाड़से बड़ा क्लेश होता है और देशके सेवाकार्यको हानि पहुँचती है। यदि किसी भी देशसेवकका हम सम्मान करना चाहें तो उसका भी तरीका होता है और उसे सीखना आवश्यक है। हम लोगोंको तो स्टेशन पर व्यवस्थित ढंगसे खड़े रहना भी नहीं आता। हम राष्ट्रीय कार्य करना चाहते हैं। हमने देशकी सेवा करनेका कार्य हाथमें लिया है। तो समाजमें हमारा व्यवहार कैसा हो, हम किस प्रकार उठें-बैठें, और किस प्रकार लोकसेवकोंका सम्मान करें, यह सब सीखना भी हमारा फर्ज हो जाता है। ऐसे प्रसंगोंपर हमारा व्यवहार कैसा हो इसके लिए हमें कवायद सीखनी चाहिए।

दूसरी बात चम्पारनके सम्बन्धमें है। वहाँकी जनताको जिस बातकी आवश्यकता थी, अब वह उसे मिल गई है।[३] बागान-मालिकोंके साथ हमारा कोई झगड़ा नहीं था। हमें तो केवल उनकी गुलामीसे मुक्त होना था और उतना हमने प्राप्त भी कर लिया। वैसे चम्पारनकी जनताके सम्बन्धमें जारी किये गये निर्देश मुजफ्फरपुरपर लागू

 
  1. गुजरातीमें यहाँ नर्मदाशंकरका उदाहरण दिया गया है।
  2. यह भाषण मुजफ्फरपुर, धर्मशाला, बिहारमें नवम्बर ११, १९१७ को दिया गया था। बिहार-उड़ीसा पुलिस एबस्ट्रेक्टस, १९१७ से पता चलता है कि इस सभामें लगभग पाँचसे सात हजार लोग उपस्थित थे।
  3. गांधीजीके नेतृत्वमें हुए चम्पारन सत्याग्रहके परिणामस्वरूप नील काश्तकारोंपर से तिनकठ्यिा कर उठा दिया गया था। देखिए खण्ड १३।