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हिन्दू धर्मके माथेपर कलंक


अस्पृश्यताकी भावनामें घृणाका अन्तर्भाव माननेसे इनकार करनेवालोंके लिए तो कोई विशेषण ही मेरे ध्यानमें नहीं आता। भूलसे कोई भंगी हमारे डिब्बे में सवार हो जाये तो बेचारा पिटे बिना नहीं रह सकता और गालियोंकी तो मानो उसपर वर्षा ही होने लगेगी। उसके हाथ चायवाला चाय और दूकानदार सौदा नहीं बेचता। वह मरता हो तो भी हम उसको छूना गवारा नहीं करते। अपना जूठा हम उसे खानेको देते हैं और फटे तथा मैले कपड़े पहननेको। कोई हिन्दू उसे पढ़ानेको तैयार नहीं होता। वह अच्छे मकानोंमें नहीं रह सकता। रास्तेमें हमारे भयसे उसे बार-बार अपनी अस्पृश्यताकी घोषणा करनी पड़ती है। इससे बढ़कर घृणा-सूचक व्यवहार और कौन-सा हो सकता है? उनकी दशासे और क्या सूचित होता है? जिस तरह यूरोपमें एक समय धर्मकी ओटमें गुलामीकी प्रथाकी हिमायत की जाती थी, उसी तरह आज हमारे समाजमें भी धर्मके नामपर अन्त्यजोंके प्रति घृणा-भावकी रक्षा की जाती है। यूरोपमें भी अन्त तक ऐसे कुछ-न-कुछ लोग निकल ही आते थे जो बाइबिलके वचन उद्धृत करके गुलामीकी प्रथाका समर्थन करते थे। अपने यहाँके वर्तमान रूढ़िके हिमायतियोंको भी मैं उसी श्रेणीमें गिनता हूँ। हमें अस्पृश्यताका विचार-दोष धर्मसे अवश्य दूर कर देना होगा। इसके बिना प्लेग, हैजे आदि रोगोंकी जड़ नहीं कट सकती। अन्त्यजोंके धन्धोंमें नीचताकी कोई बात नहीं है। डॉक्टर और हमारी मातायें भी वैसे काम करती हैं। कहा जा सकता है कि वे सब फिर स्वच्छ हो जाती हैं। अच्छा, यदि भंगी आदि स्वच्छताका पालन नहीं करते तो दोष उनका नहीं, सोलहों आने हमारा ही है। यह स्पष्ट है कि जिस समय हम प्रेमपूर्वक उनका आलिंगन करने लगेंगे उस समय वे अवश्य ही स्वच्छ रहना सीख लेंगे।

सहभोज आदि आन्दोलनोंकी तरह इस आन्दोलनको आघात देनेकी आवश्यकता नहीं है। इस आन्दोलनसे वर्णाश्रम धर्मका लोप नहीं हो सकता। इसका उद्देश्य इसके अतिरेकको दूर करके उसकी रक्षा करना है। इस आन्दोलनके पुरस्कर्त्ताओंकी यह भी इच्छा नहीं है कि भंगी आदि अपने काम छोड़ दें। किन्तु उन्हें यह दिखा देना है कि मल, गन्दगी आदि साफ करनेका उद्यम इतना आवश्यक और पवित्र है कि उसके करनेसे वैष्णव तककी शोभा हो सकती है। इस धन्धेको करनेवाले नीच नहीं, किन्तु दूसरे पेशेवालोंके बराबर सामाजिक अधिकारोंके पात्र हैं और उनका उद्यम कितने ही रोगोंसे देशकी रक्षा करता है। इसलिए वे डॉक्टरोंके समान सम्माननीय हैं।

एक ओर यह देश तपश्चर्या, पवित्रता, दया आदिके कारण सबके लिए वन्दनीय है दूसरी ओर स्वेच्छाचार, पाप, क्रूरता आदि दुर्गुणोंका भी क्रीड़ास्थल बना हुआ है। ऐसे समयमें लेखक समुदायके पाखण्डका विरोध कर समाजसे उसकी जड़ काट देने के लिए बद्ध परिकर होने में ही आपकी शोभा है। आपसे मेरी प्रार्थना है कि गोधरामें किये गये पुण्य कार्यका अभिनन्दन कर आप उस पुण्यके भागी और इस निमित्त किये जानेवाले इस उद्योगमें सहायक हों, ताकि ६ करोड़ मनुष्य हताश होकर उससे अलग न हो जायें।

इस आन्दोलनमें सम्मिलित होनेके पहले मैंने अपने धार्मिक उत्तरदायित्वको अच्छी तरहसे सोच-समझ लिया है। एक आलोचकने यह भविष्यवाणी की है कि कालान्तरमें