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पत्र : 'स्टट्समैन' को

उन्हें पूरी मुक्ति दिलाकर अपने-आपको सुधारें, और तब यूरोपीयोंसे भारतमें रहते हुए गोमांस न खाने या कमसे-कम उसे भारतके बाहरसे मँगानेका अनुरोध करें। मैंने यह भी कहा था कि यदि हमें गोरक्षाके प्रचारको धार्मिक विश्वासपर आधारित करना है, तो गौओंकी जान बचानेके लिए मुसलमानोंके वध को किसी प्रकार भी सहन नहीं किया जा सकता; और मुसलमानों तथा ईसाइयोंसे भी गौओंके लिए संरक्षण प्राप्त करनेका धार्मिक तरीका यह है कि वे उनकी करुणाकी भावनाको जगानेके लिए खुशी-खुशी स्वयं अपना बलिदान करनेके लिए तैयार हो जायें। चाहे उचित हो या अनुचित, गो-पूजा हिन्दुओंके स्वभावमें रम गई है, और मेरी समझमें इस प्रश्नपर हिन्दुओं और ईसाइयों तथा मुसलमानोंके बीच कट्टरतम तथा घोर हिंसापूर्ण संघर्षसे बचनेका इसके सिवा और कोई रास्ता दिखाई नहीं देता कि अहिंसा धर्मको पूर्ण रूपसे स्वीकार करके उसपर आचरण करें। और इसी धर्मके प्रचारको मैंने स्वेच्छया अपने जीवनका नम्र उद्देश्य बनाना है। सत्यसे मुँह नहीं मोड़ना है। यह नहीं मान लेना चाहिए कि यूरोपीयोंके लिए जो गो-वध हो रहा है, उसके बारेमें हिन्दू कुछ भी महसूस नहीं करते। मैं जानता हूँ कि आज उनका क्रोध, उनके मनपर अंग्रेजी शासनका जो रोब छाया है, उसके कारण दबा हुआ है। किन्तु सारे भारतमें कोई भी हिन्दू ऐसा नहीं है जो एक दिन अपने देशको गो-वधसे मुक्ति दिलानेकी आशा नहीं लगाये हुए है। किन्तु, हिन्दूधर्मको मैं जिस रूपमें जानता हूँ, उसकी प्रवृत्तिके प्रतिकूल वह लोगोंको—चाहे वे ईसाई हों या मुसलमान—तलवारके जोरपर गो-वध बन्द करनेके लिए मजबूर करनेको बुरा नहीं समझता। मैं ऐसे अनर्थको रोकनेके लिए अपनी विनम्र भूमिका निभाना चाहता हूँ, और मैं श्री इर्विनको धन्यवाद देता हूँ कि उन्होंने मुझे आपके पाठकोंको तथा स्वयं श्री इर्विनको भी अपने कठिन प्रयत्नमें सहायता देनेके लिए आमन्त्रित करनेका अवसर दिया। हो सकता है, यह प्रयत्न गो-वध रोकनेमें सफल न हो। किन्तु कोई कारण नहीं कि धैर्यपूर्वक उद्योगरत रहने तथा उसके अनुसार निरन्तर आचरण करते रहने पर लोगोंको अपने साथी पशुको बचानेके लिए साथी मानवको मारनेके अपराधमें निहित भूल, बेवकूफी और अमानवीयताका एहसास करानेमें भी सफलता न मिले।

इतना तो बेचारी गौओंके बारेमें हुआ। अब मैं दो शब्द अपनी निरपराध पत्नीके बारेमें कहूँगा, जिन्हें कभी यह भी मालूम नहीं हो पायेगा कि आपके संवाददाताने उनके प्रति क्या अपराध किया है। उन्हें श्री इर्विन द्वारा उल्लिखित दोनों बाजारोंके बारेमें कोई जानकारी नहीं है—ठीक वैसे ही जैसे अभी हालतक, और श्री इर्विन द्वारा बताये गये प्रतिद्वंद्वी बाजारकी स्थापनाके कुछ समय बादतक, मुझे उसका कोई ज्ञान नहीं था। यदि श्री इर्विनको उनके साथ परिचय प्राप्त करनेका सम्मान मिले तो उन्हें तुरन्त मालूम हो जायेगा कि श्रीमती गांधी एक सीधी-सादी महिला हैं—लगभग अनपढ़। उनसे मिलनेपर वे अपनेको इस सम्बन्धमें और भी आश्वस्त कर सकेंगे कि श्रीमती गांधीका इसकी स्थापनामें कोई हाथ नहीं है और वे ऐसे बाजारका प्रबन्ध करने में सर्वथा असमर्थ हैं। और अन्तमें उन्हें तुरत मालूम हो जायेगा कि श्रीमती गांधीका समय श्री इर्विनके पत्रमें उल्लिखित देहातमें स्थापित स्कूल चलानेवाले अध्यापकों-