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पत्र : एस॰ के॰ रुद्रको

काफी नहीं कि हरएक प्रान्तमें कुछ आदमी अंग्रेजीकी विशेष शिक्षा प्राप्त कर लें, जिससे वे नये विचारों और वैज्ञानिक खोजोंका ज्ञान प्रादेशिक भाषाओंके द्वारा आम जनतामें फैला सकें? ऐसा करके हम अपने लड़के-लड़कियोंको नये ज्ञानसे ओत-प्रोत कर सकेंगे और जो नवजागरण हम पिछले साठ वर्षोंमें अनुभव नहीं कर पाये, उसे अनुभव करनेकी आशा सँजो सकेंगे। रोज़-रोज़ मेरी यह प्रतीति दृढ़ होती जा रही है कि हमारे बच्चे तभी भिन्न-भिन्न विज्ञानोंको पचा सकेंगे जब वे प्रादेशिक भाषाओंमें शिक्षा पाने लगेंगे। इस अत्यन्त आवश्यक सुधारके लिए अधकचरे कदम उठानेसे काम नहीं चलेगा। जबतक हम यह स्थिति प्राप्त नहीं कर लेंगे, तबतक मुझे डर है कि अपने लिए विचार करनेका काम हमें अंग्रेजोंपर ही छोड़ देना पड़ेगा और हमारा काम गुलामोंकी तरह उनकी नकल करना ही रहेगा। जबतक यह बहुत ही आवश्यक और महत्त्वपूर्ण परिवर्तन नहीं हो जाता, तबतक स्वराज्यकी कोई भी योजना इस विडम्बनाको टाल नहीं सकेगी। यदि आप इस मामलेमें मुझसे सहमत हों; तो उपर्युक्त विचार अपनी भाषामें प्रकट करते हुए एक पत्र मुझे लिख भेजिए।

कलकत्तेमें समय बड़ा अच्छा कटा, लेकिन कांग्रेसके मण्डपमें[१] नहीं; मंडपके बाहर ही। कविवर और उनकी मंडलीने 'डाकघर'[२] नाटक खेला, जिसे देखकर मैं मुग्ध हो गया। यह लिखाते समय भी कविकी मनोहर और मीठी आवाज मेरे कानोंमें गूँज रही है। बीमार बच्चेका अभिनय भी उतना ही सुन्दर रहा। बँगला संगीतने मुझे मोह लिया। यद्यपि मुझे अधिक सुननेको नहीं मिला, फिर भी जितना सुना, उससे मेरे ज्ञान-तन्तुओंको, जो हमेशा तनावकी स्थितिमें रहते हैं, बड़ा आराम मिला।

आपको यह जानकर प्रसन्नता होगी कि समाज सेवा सम्मेलनमें मैंने अपने अध्यक्षपदके विशेषाधिकारका पूरा उपयोग किया। बंगाली जीवनमें जो बहुतेरा अच्छा है, उसके प्रेमीकी हैसियतसे मैंने बंगाली प्रान्तीयताके बारेमें कड़े शब्द बोलनेकी छूट पा ली।[३] श्रोताओंमेंसे किसीने बुरा भी नहीं माना। वे मेरी आलोचनाओंकी कद्र करते दीख पड़े। मैं अपने भाषणकी एक प्रति आपको भेज रहा हूँ। अलबत्ता, मैंने जो व्यक्तिगत अपील की थी, वह इसमें नहीं है।

अपने अनुभवोंका दसवाँ हिस्सा भी मैंने आपको नहीं बतलाया है, किन्तु भाई देसाई मुझे याद दिला रहे हैं कि एक और अनुभव तो मुझे आपको बतलाना ही चाहिए। वहाँ 'मानव-दया संघ' (ह्यूमैनिटेरियन लीग) की बैठकमें भी मैं गया था। उसमें भी मैं अध्यक्ष था। मुझे लगा कि कालीघाटपर होनेवाली आसुरी पूजाके बारेमें अगर मैं न बोलूँ, तो वह खुद अपने और श्रोताओंके प्रति ईमानदारी नहीं होगी। इसलिए मैं तो बिना किसी लाग-लपेटके साफ-साफ बोला।[४] बोलते समय श्रोताओंकी ओर बराबर देखता रहा। कह नहीं सकता कि मेरे कहनेका उनपर असर हुआ या

 
  1. २९-३१ दिसम्बरको कांग्रेसका अधिवेशन चल रहा था।
  2. रवीन्द्रनाथ ठाकुरका एक नाटक।
  3. देखिए "भाषण : अखिल भारतीय समाज सेवा सम्मेलनमें", ३१-१२-१९१७।
  4. देखिए "भाषण : विश्वविद्यालय भवनमें", ३१-१२-१९१७