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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

निराशाकी ध्वनि सुनाई देती है। मुझे तो लगता है कि हम आज भी पहलेकी भाँति अपने कर्मसे लोगों को इतना प्रभावित कर सकते हैं जितना अपने भाषणों और लेखोंसे कभी नहीं कर सकते । इस समाजसे मेरी प्रार्थना है कि वह ऐसे मौन कर्मको ही प्रधानता दे ।

[ गुजरातीसे ]
महात्मा गांधीनी विचारसृष्टि

१२३. पत्र: जी० एस० अरुण्डेलको

[ साबरमती ]
फरवरी २१, १९१८

[प्रिय श्री अरुण्डेल, ]

आपका पत्र मिला। अभी तो में एक-दो टेढ़े मामलोंके सिलसिलेमें व्यस्त हूँ। मुझे जब चाहूँ, तब विचार नहीं आते। किसी विषयपर लोगोंको कुछ देने लायक चीज लिख सकूँ, उससे पहले मुझे अपने मनको उस विषयमें रमाना पड़ता है। मैं इतना ही कह सकता हूँ कि आपका पत्र में ध्यान में रखूंगा और कुछ-न-कुछ भेजनेका प्रयत्न करूँगा। लेकिन अधिक सम्भव है कि न भेज सकूं। हाँ, जो काम मैंने हाथमें ले रखे हैं, वे सोचे हुए समय से पहले पूरे हो जायें, तो अलग बात है।[१]

"महादेव देसाईकी हस्तलिखित डायरीसे ।
सौजन्य : नारायण देसाई
 
  1. १. महादेव देसाईंने अपनी डायरीमें इस पत्रके सम्बन्ध में लिखा है: "यह पत्र अरण्डेलके लिए लिखा गया था, जिन्होंने राष्ट्रीय शिक्षा प्रसारक समिति [ नेशनल एजूकेशन प्रमोशन सोसाइटी ] के मन्त्रीको हैसियतसे गांधीजीसे शिक्षा-सप्ताहके लिए एक लेख लिखनेका अनुरोध किया था। बादमें जब गांधीजीने देखा कि लेख भेजनेको अन्तिम तिथि २० फरवरी थी, तो उन्होंने कहा : 'जान बची; ईश्वरको धन्यवाद । फिर उन्होंने मुझसे कहा कि अरुण्डेलको लिख दूँ : "आपने जो तिथि निश्चित की है उससे पहले मैं लेख भेज ही नहीं सकता, क्योंकि आपका पत्र मुझे कल ही मिला ।” लगभग इसी कालमें स्लाईको लिखे एक पत्र में गांधीजीने लिखा है : “किसी भी चीजसे छुटकारा मिळे तो सचमुच बड़ी राहत मिलती है।