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१८१. भाषण : आश्रम-सदस्योंके सम्मुख[१]

मार्च १८, १९१८

समझौता बहुत करके आज दस बजेसे पहले हो जायेगा । इस समझौतेपर में प्रमाद-रहित स्थिति में विचार कर रहा हूँ। यह ऐसा समझौता है कि जिसे मैं कभी स्वीकार न करता । किन्तु इसमें मेरी प्रतिज्ञाका दोष है । मेरी प्रतिज्ञामें बहुत-से दोष थे । इसका अर्थ यह नहीं है कि उसमें गुण कम और दोष अधिक थे; बल्कि यह है कि जैसे वह अनेक गुणोंसे युक्त थी, वैसे ही बहुतसे दोषोंसे युक्त भी थी। मजदूरोंके सम्बन्ध में वह महान् गुणोंसे युक्त थी और तदनुसार उसके परिणाम भी सुन्दर हुए हैं। मालिकोंके सम्बन्ध में वह दोष युक्त थी और उस हदतक मुझे झुकना पड़ा है। मालिकोंपर मेरे उपवासका दबाव पड़ा है। मैं इससे कितना ही इनकार करूँ, तो भी यह लोगोंको महसूस हुए बिना नहीं रह सकता और दुनिया मेरी बात मानेगी भी नहीं । “मालिक मेरी इस अनिष्ट दशाके कारण स्वतन्त्र नहीं रहे और जब कोई मनुष्य दब रहा हो, तब उससे कुछ लिखवा लेना, उससे कोई शर्त मंजूर करा लेना या उससे कुछ ले लेना न्याय विरुद्ध है । सत्याग्रही कभी ऐसा नहीं कर सकता और इसीलिए मुझे इस मामले- में झुकना पड़ा है। लज्जासे दबा हुआ मनुष्य आखिर क्या कर सकता है ?" में थोड़ी- थोड़ी माँग करता गया । उसमें से उन्होंने खुशीसे जितनी स्वीकार की, उतनी ही मुझे लेनी पड़ी। मैं पूरी मांग रखता तो वे पूरी स्वीकार कर लेते। किन्तु उन्हें ऐसी स्थिति में डालकर उनसे में उस सबको ले ही नहीं सकता था । यदि में लेता तो वह मेरे लिए उपवास तोड़कर नरकका भोजन करनेके बराबर होता । और अमृतका भोजन भी यथासमय ही करनेवाला में नरकका भोजन कैसे कर सकता था ?

मेरा यह खयाल है कि हमारे शास्त्रों में कुछ वचन महान् अनुभवके परिणामस्वरूप लिखे गये हैं । थोरो कहता है कि जहाँ अन्याय प्रवर्तित हो वहाँ शुद्ध मनुष्य धनवान् हो ही नहीं सकता और जहाँ न्याय प्रवर्तित हो, वहाँ उसे किसी चीजकी तंगी नहीं हो सकती। हमारे शास्त्रों में इससे भी अधिक कहा गया है। वे कहते हैं कि जहाँ अन्याय प्रवर्तित हो वहाँ शुद्ध मनुष्य जीवित ही नहीं रह सकता । इसीलिए हममें से कुछ लोग किसी प्रवृत्ति में नहीं पड़ते। इसका कारण यह नहीं है कि वे प्रवृत्तिसे ऊब जाते हैं, बल्कि यह है कि वे कोई प्रवृत्ति चला ही नहीं सकते। उन्हें दुनियामें इतना अधिक दम्भ दिखाई देता है कि वे उसमें रह ही नहीं सकते। बहुत-से पाखंडियोंमें एक शुद्ध मनुष्य हो, तो उसे उन पाखंडियों को छोड़ देना चाहिए या खुद अशुद्ध बन जाना चाहिए। दुनियाके कुछ शुद्ध मनुष्य हिमालय या विन्ध्याचलमें चले जाते हैं और अपने शरीरोंको सुखा देते हैं। कुछ लोगों को यह शरीर मिथ्या लगता है । जो आत्माकी अमरता और सर्वव्यापकता में विश्वास रखते हैं, वे अपने शरीरोंको वहीं त्याग देते हैं और केवल मोक्षको

 
  1. यह समझौतेके दिन प्रातःकाल दिया गया था ।