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पत्र: ‘बॉम्बे क्रॉनिकल’ को

 

मेरे पास भाषणकी शब्दश: रिपोर्ट मौजूद है। सारांशकी अपेक्षा इस भाषणसे सरकारी नीति ज्यादा स्पष्ट रूपसे मालूम होती है। कमिश्नर साहबका यह कहना है कि लगान मुलतवी करनेके सम्बन्धमें माल अधिकारियोंका निर्णय ही अन्तिम है। अधिकारी लोग रैयतकी शिकायतें सुन सकते हैं; परन्तु उनके निर्णयके अन्तिम होने के सम्बन्धमें कोई प्रश्न नहीं उठ सकता। सारा संघर्ष इसीको लेकर है। रैयतकी ओरसे कहा जाता है कि जब सरकारके स्थानीय अधिकारियों और रैयतके बीच प्रशासनिक आदेशोंके पालनके बारेमें बहुत बड़ा मतभेद हो तो मतभेदके मुद्दोंका फैसला किसी निष्पक्ष जाँच-समितिको सौंप देना चाहिए। ब्रिटिश संविधानकी सारी शक्ति इसीमें निहित है। कमिश्नरने सिद्धान्तके आधारपर इस बातको मानने से इनकार कर दिया और इस प्रकार यह संकट उत्पन्न हो गया है। उन्होंने इस बातको बहुत तूल दिया और पहलेसे ही लॉर्ड विलिंग्डनसे इस आशयका एक पत्र मँगवाकर अपनी स्थिति दृढ़ बना ली कि स्वयं वे (लॉर्ड विलिग्डन) भी कमिश्नरके निर्णयमें हस्तक्षेप न करेंगे। अपने पक्षके समर्थनके लिए वे वर्तमान युद्धकी आड़ लेते हैं और रैयतसे तथा मुझसे कहते हैं कि साम्राज्यके इस संकटके समय तुम लोग यह संकल्प त्याग दो। लेकिन मैं कह सकता हूँ कि कमिश्नर साहबके व्यवहारसे तो जर्मन-संकटसे भी अधिक गम्भीर संकट उपस्थित हो जाता है; मैं साम्राज्यको उसके इस भीतरी संकटसे बचानेका प्रयत्न करके साम्राज्यकी सेवा ही कर रहा हूँ। यह बात कुछ झूठ नहीं है कि भारतवर्ष अपनी एक बहुत लम्बी निद्रासे जाग रहा है। अपने अधिकारों और कर्त्तव्योंको समझनेके लिए रैयतका पढ़ा-लिखा होना आवश्यक नहीं। रैयत जिस समय अपनी अजेय शक्ति समझ लेती है उस समय कोई भी सरकार, चाहे वह कितनी ही बलवती क्यों न हो, उसकी इच्छाके विरुद्ध नहीं ठहर सकती। खेड़ाकी रैयत भारतवर्ष में साम्राज्यकी एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण समस्या हल कर रही है। खेड़ाके लोग दिखा देंगे कि लोगोंकी इच्छाके बिना उनपर शासन करना असम्भव है। ‘सिविल-सविस’ जब एकबार इस बातको समझ लेगी तब वह ऐसे सच्चे सिविल-सर्वेंट भेजेगी जो प्रजाके अधिकारोंके पूरे रक्षक हों। इस समय सिविल सर्विसका शासन भयका शासन है। खेड़ाकी रैयत प्रेमके शासनके लिए लड़ रही है। यह संकट कमिश्नरने ही पैदा किया है। जिस समय उन्होंने देखा था कि लोगोंका उनसे मत-भेद है उसी समय उनका कर्त्तव्य था कि वे लोगोंको सन्तुष्ट कर देते; और इस समय भी उनका यही कर्त्तव्य है। यदि कमिश्नर साहब जनताकी बात मान लेंगे और उनको रिआयतें देंगे तो भारतके राजस्वको कोई भारी खतरा पैदा नहीं हो जायेगा। उसी तरह जिस प्रकार कानपुर मसजिदवाले मामलेमें जनताकी माँग स्वीकार करके उसका एक कोना फिरसे बनवा देनेपर साम्राज्य के लिए कोई खतरा पैदा नहीं हुआ था; या जनताकी इच्छाके अनुसार सरकार द्वारा श्रीमती मेब्रिकको माफी दे देनेपर न्याय और प्रशासनको कोई खतरा पैदा नहीं हुआ था। यदि मैंने चटपट लोगोंको यह सम्मति न दी होती कि यदि कमिश्नर तुम


वल्लभभाई पटेलसे उसमें जानेके लिए कहा था, लेकिन बादमें कमिश्नरके भाषण के कारण उत्पन्न गलतफहमी दूर करनेके लिए उन्होंने सभामें स्वयं भाषण करना आवश्यक समझा। उनके भाषणके लिए देखिए परिशिष्ट १३।

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