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३४३. भाषण: करमसदमें[१]

जुलाई १४, १९१८

उन्होंने [गांधीजीने] अपना भाषण प्रारम्भ करते हुए कहा, मैं यहाँ आपको कड़वा घूँट पिलाने के लिए आया हूँ। आशा करता हूँ कि आप लोग यह याद रखते हुए एकाएक उससे मुँह न फेर लेंगे कि स्वशासित और स्वतन्त्रता-प्रिय लोगोंके स्वभावका एक मुख्य लक्षण यह है कि वे सबकी सुनते हैं; परन्तु करते वही हैं जो उन्हें सबसे ज्यादा ठीक लगता है। मैं आपसे पूछता हूँ कि स्वराज्यका अर्थ क्या है?

हमारे गाँव गन्दगीके ढेरोंसे ज्यादा और कुछ नहीं हैं। हम स्वयं डाकुओं और जंगली जानवरोंसे अपनी तथा अपने बाल-बच्चोंकी रक्षा करनेमें असमर्थ हैं। हमारे ऊपर मुखी और रावनिये अत्याचार करते हैं और हमें धमकाते हैं। हमारे पास हथियार नहीं हैं और हम उन्हें चलाना भी नहीं जानते। क्या यही स्वराज्य है? तिसपर भी सारे भारत में सामान्यतः स्थिति यही है। आप अंग्रेजोंके किसी गाँवकी स्वच्छता, शान्ति और स्वास्थ्यकर स्वतन्त्रताकी कल्पना करें―फिर देखें कि भारतीय गाँव उसकी तुलना में कितने हीन हैं। भारतके गाँवोंकी स्थितिसे इंग्लैंडके गाँवोंकी स्थिति इतनी ज्यादा अच्छी होनेका कारण यह है कि प्रत्येक अंग्रेज अपन पैरोंपर खड़ा हो सकता है, हमलावरसे अपने घर-द्वार और गाँवकी रक्षा कर सकता है।

इस प्रकार स्वराज्यका सबसे पहला आवश्यक तत्त्व है आत्मरक्षाकी शक्ति। मैं तभी स्वराज्यके योग्य हूँ जब में अपनी रक्षा स्वयं कर सकूँ और अपने देशके लिए अपना रक्त बहा सकूँ। भारतको तभी जिन्दा देश कहा जा सकता है जब उसके लिए ५ लाख आदमी रणक्षेत्रमें प्राण त्याग करें। बीजको असंख्य बीज उत्पन्न करनेसे पूर्व स्वयं मिट्टीमें मिलना पड़ता है। इसी प्रकार भारतके लिए जब हजारों लोग प्राण देंगे तब उनकी राखसे जीवित भारतका जन्म होगा। हम भारतीय रोज प्रातः सायं मन्दिरों में जाते हैं और वहाँ ईश्वरकी आराधना करते हैं―उस ईश्वरकी जिसके विषयमें हम कहते हैं कि “जब-जब धर्मकी ग्लानि होती है और अधर्मकी वृद्धि होती है तब-तब वह पीड़ित और त्रस्त लोगोंके परित्राणके लिए पृथ्वीपर अवतरित होता है।” यदि हममें आत्मरक्षा करनेकी क्षमता और भावना नहीं है तो हमें इन मन्दिरोंमें जाना शोभा नहीं देता। वास्तवमें हमारे श्रीराम और श्रीकृष्णने क्या किया था? उन्होंने साधारण कोटिके मनुष्योंमें वीरता भर दी थी और उन्हें आत्मरक्षा के लिए सुसज्जित कर दिया था। इस समय हमारे हाथमें आत्मरक्षाकी शक्ति प्राप्त करनेका स्वर्ण अवसर आया है। हमें चाहिए कि हम उसे खो न दें; बल्कि उसका पूरा लाभ उठायें। वह साम्राज्य, जो अबतक भारतकी रक्षा करता आया है और जिसमें बराबरीके दर्जेका साझेदार बनना

  1. श्री गांधी द्वारा फौजी भरतीके बारेमें यह तीसरा भाषण था जिसे उन्होंने आनन्द तालुकेके करमसद गाँव में दिया था।