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सम्पूर्ण गांधी वाङ‍्मय

गई] सोखता कागजकी उपमा गलत साबित कर दी है। शिक्षाके कारण जापानके जन-जीवनमें हिलोरें उठ रही हैं और दुनिया जापानियोंका काम अचरज-भरी आँखोंसे देख रही है। विदेशी भाषाके माध्यमसे शिक्षा देनेकी पद्धतिसे अपार हानि होती है।

माँके दूधके साथ जो संस्कार और मीठे शब्द मिलते हैं, उनके और पाठशालाके बीच जो मेल होना चाहिए, वह विदेशी भाषाके माध्यमसे शिक्षा देने में टूट जाता है। इस सम्बन्धको तोड़नेवालोंका हेतु पवित्र ही क्यों न हो, फिर भी वे जनताके दुश्मन हैं। हम ऐसी शिक्षाके वशीभूत होकर मातृद्रोह करते हैं। इसके अतिरिक्त विदेशी भाषा द्वारा शिक्षा देनेसे अन्य हानियाँ भी होती हैं। शिक्षित-वर्ग और सामान्य जनताके बीचमें अन्तर पड़ गया है। हम जनसाधारणको नहीं पहचानते। जनसाधारण हमें नहीं जानता। वे हमें साहब समझते हैं और हमसे डरते हैं; वे हमपर भरोसा नहीं करते। यदि यही स्थिति अधिक समय तक कायम रही तो एक दिन लॉर्ड कर्जनका[१] यह आरोप सही हो जायगा कि शिक्षित-वर्ग जनसाधारणका प्रतिनिधि नहीं है।

सौभाग्यसे शिक्षित लोग अपनी इस मोह-मूर्च्छासे जागते दिखाई देते हैं। वे जनसाधारणसे सम्पर्क करते हैं तो उन्हें ऊपर बताये हुए दोष स्पष्ट दिखाई देते हैं। उनमें जो जोश आया है उसे लोगोंमें कैसे भरें? अंग्रेजीके माध्यमसे तो यह काम किया नहीं जा सकता। गुजरातीके द्वारा उसे लोगोंमें भरनेकी शक्ति उनमें नहीं है या बहुत कम है। उन्हें अपने विचार मातृ-भाषामें जनसाधारणके सामने रखनेमें बड़ी कठिनाई होती है। ऐसी बातें मैं हमेशा सुनता हूँ। इस बाधाके कारण जन-जीवनका प्रवाह रुक गया है। हमें अंग्रेजी शिक्षा देने में मैकॉलेका[२] हेतु शुद्ध था। उसके मनमें हमारे साहित्यके प्रति तिरस्कारका भाव था। यह छूत हमें भी लग गई; हम भी मूढ़ होकर इसका तिरस्कार करने लगे और इस मामलेमें अपने गुरुसे भी आगे बढ़ गये। मैकॉले सोचता था कि हम जनसाधारणमें पश्चिमी सभ्यताके प्रचारक बनकर जायेंगे। उसकी कल्पना यह थी कि हममें से कुछ लोग अंग्रेजी पढ़-लिखकर, अपना चरित्र उन्नत करके जनताको नये विचार देंगे। वे देने लायक थे या नहीं, इस बातका विचार करना यहाँ अप्रासंगिक होगा। हमें तो सिर्फ शिक्षाके माध्यमकी बात ही सोचनी है। हमने अंग्रेजी शिक्षामें [नये विचारोंको नहीं] धनप्राप्ति को देखा, और उसके उपयोगको सर्वाधिक प्रमुख स्थान दे डाला। कुछ लोगोंमें अपने देशका अभिमान भी पैदा हुआ। इस तरह मूल विचार गौण हो गया और अंग्रेजी भाषाका प्रचार श्री मैकॉलेकी धारणासे भी आगे बढ़ गया; किन्तु इससे हम घाटेमें रहे।

यदि हमारे हाथमें सत्ता होती, तो हम इस दोषको तुरन्त देख लेते और तब मातृभाषाका त्याग करना असम्भव हो जाता। सरकारी तबकेने उसे नहीं छोड़ा; हमने

 
  1. १८५९-१९२५; वाइसरॉय और भारतके गवर्नर-जनरल, १८९९-१९०५।
  2. टामस वैविंगटन मैकॉले (१८००-५९) भारत सरकारकी सामान्य लोक शिक्षा समिति के अध्यक्ष और गवर्नर जनरलकी कार्यकारिणी परिषदके कानून-सदस्य। उन्होंने भारतमें अंग्रेजी शिक्षा शुरू करनेकी सिफारिश अपने २ फरवरी १८३५ के स्मरण-पत्रमें की थी।