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भाषण : द्वितीय गुजरात शिक्षा सम्मेलनमें


अंग्रेजी भाषाके माध्यमसे शिक्षामें कमसे-कम सोलह वर्ष लगते हैं। यदि इन्हीं विषयोंकी शिक्षा मातृभाषाके माध्यमसे दी जाये, तो ज्यादासे-ज्यादा दस वर्ष लगेंगे। यह राय बहुतसे अनुभवी शिक्षकोंने प्रकट की है। हजारों विद्यार्थियोंके छ:-छः वर्ष बचनेका अर्थ यह होता है कि कई हजार वर्ष जनताको मिल गये।

विदेशी भाषा द्वारा शिक्षा पानेमें दिमागपर जो बोझ पड़ता है वह असह्य है। यह बोझ हमारे बच्चे उठा तो सकते हैं, लेकिन उसकी कीमत उन्हें चुकानी पड़ती है। वे दूसरा बोझ उठानेके लायक नहीं रह जाते। इससे हमारे स्नातक अधिकतर निकम्मे, कमजोर, निरुत्साही, रोगी और कोरे नकलची बन जाते हैं। उनमें खोज करनेकी शक्ति, विचार करनेकी शक्ति, साहस, धीरज, वीरता, निर्भयता और अन्य गुण बहुत क्षीण हो जाते हैं। इससे हम नई योजनाएँ नहीं बना सकते और यदि बनाते हैं तो उन्हें पूरा नहीं कर पाते। कुछ लोग, जिनमें उपर्युक्त गुण दिखाई देते हैं, अकाल ही कालके गालमें चले जाते हैं। एक अंग्रेजने लिखा है कि मूल लेख और सोखता कागजके अक्षरों में जो भेद है, वही भेद यूरोपके और यूरोपके बाहरके लोगोंमें है। इस विचारमें जो सचाई है वह कोई एशियाके लोगोंकी स्वाभाविक अयोग्यताके कारण नहीं है। इसका कारण शिक्षाका योग्य माध्यम चुन लेना है। दक्षिण आफ्रिकी हब्शी साहसी, शरीरसे कद्दावर और चरित्रवान् हैं। बाल-विवाह आदि जो दोष हममें हैं वे उनमें नहीं है। फिर भी उनकी दशा वैसी ही है जैसी हमारी। उनकी शिक्षाका माध्यम डच भाषा है। वे भी हमारी तरह डच भाषाको तुरन्त अधिकृत कर लेते हैं और हमारी ही तरह शिक्षा समाप्त होते-होते कमजोर हो जाते हैं। वे भी 'बहुत हदतक' कोरे नकलची निकलते हैं। उनमें भी असली चीज माध्यमरूपमें मातृ-भाषाके हटनेसे लुप्त हुई दीखती है। अंग्रेजी शिक्षा पाये हुए हम लोग ही इस नुकसानका सही अनुमान नहीं लगा पाते। यदि हम यह अनुमान लगा सकें कि जनसाधारणपर हमारा कितना कम असर पड़ा है, तो इसकी कुछ कल्पना हो सकती है। हमारे माता-पिता हमारी शिक्षाके बारेमें कभी-कभी कुछ कह देते हैं, वह विचारने लायक होता है। हम जगदीशचन्द्र बसु[१] और रायको[२] देखकर मोहांध हो जाते हैं। मुझे विश्वास है कि हमने ५० वर्ष तक मातृ-भाषा द्वारा शिक्षा पाई होती, तो हममें इतने बसु और राय होते कि उन्हें देखकर हमें अचम्भा न होता।

यदि हम यह विचार एक तरफ रख दें कि जापानका उत्साह जिस ओर जा रहा है, वह ठीक है या नहीं, तो हमें जापानका साहस आश्चर्यजनक मालूम होगा। उन्होंने मातृ-भाषा द्वारा जन-जाग्रति की है, इसीलिए उनके हर काममें नयापन दिखाई देता है। वे शिक्षकोंके भी शिक्षक बन गये हैं। उन्होंने [गैर-यूरोपीय देशोंके लोगोंको दी

 
  1. सर जगदीश चन्द्र बोस (१८५८-१९३७); वैज्ञानिक; बोस रिसर्च इंस्टीट्यूटके संस्थापक तथा वनस्पति विज्ञान सम्बन्धी पुस्तकोंके लेखक।
  2. आचार्य प्रफुल्ल चन्द्र राय (१८६१-१९४४); वैज्ञानिक और देशभक्त।