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सम्पूर्ण गांधी वाङ‍्मय

शिक्षित-वर्गमें अग्रगण्य एक स्वभाषा-प्रेमी व्यक्तिके हैं। आचार्य आनन्दशंकर ध्रुव[१] जो कुछ लिखते हैं, इसपर हम विचार किये बिना नहीं रह सकते। उन्होंने जो अनुभव प्राप्त किया है, वह बहुत कम लोगोंने प्राप्त किया है। उन्होंने साहित्य और शिक्षाकी बड़ी सेवा की है। उन्हें सलाह देने तथा टीका करनेका पूरा अधिकार है। ऐसी स्थितिमें मेरे-जैसे व्यक्तिको कुछ कहते हुए बड़ी झिझक होती है। और फिर, ये विचार अकेले आनन्दशंकर भाईके ही नहीं हैं। उन्होंने मीठी भाषामें अंग्रेजी भाषाके समर्थकोंके विचार रखे हैं। उन विचारोंका आदर करना हमारा कर्त्तव्य है। इसके अलावा भी मेरी स्थिति कुछ विचित्र-सी है। उनकी सलाहसे, उनकी निगरानीमें मैं राष्ट्रीय शिक्षाका प्रयोग कर रहा हूँ। वहाँ मातृ-भाषाके माध्यमसे ही शिक्षा दी जाती है। जहाँ इतना निकटका सम्बन्ध हो, वहाँ टीकाके रूपमें कुछ भी लिखते समय हिचकिचाना स्वाभाविक है। सौभाग्यसे आचार्य ध्रुवने शिक्षाके माध्यमके रूपमें अंग्रेजी भाषा और मातृभाषा दोनोंका ही प्रयोग होते देखा है और दोनोंमें से एकके बारेमें भी उन्होंने निश्चित राय नहीं दी है। इसलिए उनके विचारोंके विरुद्ध कुछ कहने में संकोच अवश्य कम हो जाता है।

अंग्रेजीके सम्बन्धमें हम अपनी स्थितिको जरूरतसे ज्यादा महत्व देते हैं। मैं जानता हूँ कि इस सम्मेलनमें इस विषयमें पूरी-पूरी आजादीसे चर्चा नहीं की जा सकती। किन्तु जो राजनैतिक मामलोंमें नहीं पड़ सकते हमारा उनसे इतना कहना तो अनुचित नहीं है कि भारतमें अंग्रेजोंका राज्य केवल भारतकी भलाईके लिए होना चाहिए। और किसी विचारसे इस सम्बन्धका बचाव नहीं किया जा सकता। एक राष्ट्रका दूसरे राष्ट्रपर राज्य करना दोनोंके लिए असह्य है, बुरा है और दोनोंको नुकसान पहुँचानेवाला है यह बात अंग्रेज अधिकारियोंने भी मानी है और जहाँ कहीं भी परोपकारकी दृष्टिसे विचार होगा, वहाँ यह बात सिद्धान्तरूपमें मानी जायेगी। इसलिए यदि शासकों और शासितों दोनोंको यह निश्चय हो जाये कि अंग्रेजीके माध्यमसे शिक्षा देनेसे जनसाधारणकी मानसिक शक्ति नष्ट होती है, तो एक पलकी भी देर किये बिना शिक्षाका माध्यम बदल दिया जाना चाहिए। इसमें जो बाधाएँ सामने आयें, उन्हें दूर करने में ही हमारे पुरुषार्थकी कसौटी है। यदि यह बात ठीक मान ली जाये, तो जो लोग आचार्य ध्रुवकी तरह यह स्वीकार करते हैं कि अंग्रेजी माध्यमके कारण हमारी मानसिक शक्तिकी हानि होती है उन्हें भरोसा दिलाने के लिए कोई दूसरी दलील देनेकी जरूरत नहीं रह जाती।

यह सोचना कि मातृभाषाके माध्यम द्वारा शिक्षा देनेसे अंग्रेजी भाषाके ज्ञानको धक्का पहुँचेगा, अनावश्यक है। सभी पढ़े-लिखे भारतीयोंको इस भाषापर अधिकार प्राप्त करनेकी जरूरत नहीं है। इतना ही नहीं मेरी तो यह भी नम्र राय है कि उसपर अधिकार प्राप्त करनेकी रुचि पैदा करना भी जरूरी नहीं है।

कुछ भारतीयोंको अंग्रेजी सीखनी अवश्य पड़ेगी। आचार्य ध्रुवने केवल उच्च शिक्षाकी दृष्टिसे ही इस प्रश्नपर सोचा है, परन्तु हम सब दृष्टियोंसे सोचनेपर देख सकेंगे कि दो वर्गोको अंग्रेजीकी जरूरत रहेगी:

 
  1. आनन्दशंकर बापुभाई ध्रुव (१८६९-१९४२) प्रसिद्ध विद्वान्; बनारस हिन्दू विश्वविद्यालयके सह-उपकुलपति।