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भाषण : द्वितीय गुजरात शिक्षा सम्मेलनमें


१. वे देशप्रेमी लोग, जिनमें भाषा सीखनेकी अधिक शक्ति है, जिनके पास समय है और जो अंग्रेजीका उपयोग अंग्रेजी साहित्यमें शोध करके उसके परिणाम जनताके सामने रखने में या शासकोंसे मिलने-जुलनेमें करना चाहते हैं, और

२. वे लोग जो अंग्रेजी ज्ञानका उपयोग रुपया कमानेमें करना चाहते हैं।

इन दोनों वर्गोंको अंग्रेजी भाषाका उत्कृष्ट ज्ञान एक वैकल्पिक विषयके रूपमें देनेमें कोई हर्ज नहीं। उनके लिए इसकी सुविधा तक कर देना जरूरी है। पढ़ाईके इस क्रममें भी शिक्षाका माध्यम तो मातृ-भाषा ही रहेगी। आचार्य ध्रुवको भय है कि यदि हमारी पूरी शिक्षा-दीक्षा अंग्रेजीके माध्यमसे न हुई और हमने उसे केवल विदेशी भाषाके रूपमें पढ़ा, तो जैसा हाल फारसी, संस्कृत और ऐसी ही अन्य भाषाओंका होता है, वैसा ही अंग्रेजीका भी होगा। मुझे आदरके साथ कहना चाहिए कि इस विचारमें कुछ दोष है। बहुतसे अंग्रेज अपनी शिक्षा-दीक्षा अंग्रेजीमें होनेपर भी फ्रेंच आदि भाषाओंका ऊँचा ज्ञान प्राप्त करते हैं और उनका अपने काममें पूरा उपयोग कर सकते हैं। भारतमें ऐसे भारतीय मौजूद हैं, जिन्होंने अंग्रेजीमें शिक्षा पाई है, परन्तु फ्रेंच और अन्य भाषाओंपर भी उनका असाधारण अधिकार है। सच तो यह है कि जब अंग्रेजी अपनी जगह रहेगी और मातृ-भाषा अपना पद ले लेगी, तब हमारे मस्तिष्क जो अभी रुँधे हुए हैं, बन्धनमुक्त हो जायेंगे। और जब हमारा मस्तिष्क शिक्षित तथा सुसंस्कृत होनेपर भी ताजा होगा तब उसे अंग्रेजी भाषाका ज्ञान प्राप्त करनेका बोझ भारी नहीं लगेगा। मेरा तो यह भी विश्वास है कि उस समयका अंग्रेजीका अध्ययन हमारे आजके अंग्रेजीके अध्ययनसे ज्यादा उपयुक्त होगा, और बुद्धि प्रखर होनेके कारण उसका उपयोग अधिक अच्छा हो सकेगा। लाभालाभके विचारसे यह मार्ग सभी अर्थोका साधक मालूम होगा।

जब हम मातृ-भाषा द्वारा शिक्षा पाने लगेंगे, तब हमारे घरके लोगोंके साथ हमारा दूसरा ही सम्बन्ध रहेगा। आज हम अपनी स्त्रियोंको अपनी सच्ची जीवन-सहचरी नहीं बना सकते। उन्हें हमारे कामोंका बहुत कम ज्ञान होता है। हमारे माता-पिताको हमारी पढ़ाईके सम्बन्धमें कोई जानकारी नहीं होती। यदि हम अपनी भाषाके जरिये उच्च-शिक्षा प्राप्त करें तो हम अपने धोबी, नाई और भंगी सभीको सहज ही शिक्षा दे सकेंगे। विलायतमें हजामत बनवाते हुए हम नाईके साथ राजनीतिकी चर्चा कर सकते हैं। यहाँ तो हम अपने कुटुम्बमें भी ऐसी चर्चा नहीं कर सकते। इसका कारण यह नहीं है कि हमारे कुटुम्बी या नाई अज्ञानी है। उस अंग्रेज नाईके बराबर ज्ञानी तो ये भी हैं। इनके साथ हम महाभारत, रामायण और तीर्थोकी बातें करते हैं, क्योंकि लोक-शिक्षण इसी दिशामें प्रवाहित होता है। परन्तु स्कूलकी शिक्षा घर तक नहीं पहुँच पाती, क्योंकि अंग्रेजीमें पढ़ी हुई बातें हम अपने कुटुम्बियोंको बताने में असमर्थ रह जाते हैं।

आजकल हमारी धारासभाओंका सारा कामकाज अंग्रेजीमें होता है। बहुतेरी संस्थाओंका भी यही हाल है। इससे विद्या-धन कंजूसकी दौलतकी तरह गड़ा हुआ पड़ा रहता है। अदालतोंमें भी यही दशा है। न्यायाधीश [मुकदमोंके दौरान] अनेक
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