पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 14.pdf/६८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
३८
सम्पूर्ण गांधी वाङ‍्मय

पढ़े-लिखे लोग डर छोड़ दें, तो उनमें अपढ़ लोगोंके बराबर सामर्थ्य तो जरूर आ सकता है।

यदि 'डिग्री' का मोह दूर कर दिया जाये तो देशमें गैरसरकारी पाठशालाएँ बहुत चल सकती हैं। कोई भी शासन जनताकी सारी शिक्षाको नहीं चला सकता। अमरीकामें तो वह मुख्यत: गैरसरकारी संस्थाओंके बलपर ही चलती है। इंग्लैण्डमें भी अनेक संस्थाएँ इसी प्रकार अपने बलपर चलती हैं। वे अपने ही प्रमाणपत्र भी देती हैं।

इस शिक्षाको मजबूत बुनियादपर खड़ा करनेके लिए भगीरथ-प्रयत्न करना पड़ेगा। इसमें तन, मन, धन और आत्मा सब कुछ लगाना होगा।

मुझे ऐसा लगा है कि अमरीकासे हम बहुत नहीं सीख सकते। परन्तु उनकी एक बात तो अनुकरणीय है; वहाँकी बड़ी-बड़ी शिक्षा संस्थाएँ एक बड़े ट्रस्ट के जरिये चलाई जाती है। उसमें धनवान लोगोंने करोड़ों रुपया दान दिया है। उसकी तरफसे बहुत-सी गैरसरकारी पाठशालाएँ चलाई जाती हैं। उसमें जैसे यह रुपया इकट्ठा हुआ है, वैसे ही शरीर सम्पत्तिके धनी, देशप्रेमी और विद्वान् लोग भी इकट्ठे हुए हैं। वे सारी संस्थाओंकी जाँच करते हैं और उनकी रक्षा करते हैं। उन्हें जहाँ जितना ठीक लगता है, वहाँ उतनी मदद देते हैं। एक निश्चित विधान और नियमावलीको माननेवाली संस्थाओंको यह मदद सहज ही मिल सकती है। इस ट्रस्टकी तरफसे उत्साहके साथ किये गये आन्दोलनके परिणामस्वरूप अमरीकाके बूढ़े किसानोंको भी खेतीकी नई खोजोंसे सम्बन्धित ज्ञान मिला है। ऐसी ही कोई योजना गुजरातमें भी चलाई जा सकती है। यहाँ धन है, विद्वत्ता है और धर्मवृत्ति भी मिटी नहीं है। बच्चे तो विद्याकी राह देख ही रहे हैं। ऐसा साहस किया जाये, तो कुछ ही वर्षोंमें हम सरकारको बता सकते हैं कि हमारा प्रयत्न सच्चा है। फिर सरकार उसपर अमल करने में नहीं चूकेगी। हमारा करके दिखाया हुआ काम अर्जियोंसे कहीं ज्यादा सफल होगा।

उपर्युक्त सुझावमें गुजरात शिक्षा मण्डलके दूसरे दो उद्देश्योंका अवलोकन आ जाता है। इस प्रकारके ट्रस्टकी स्थापनासे शिक्षा-प्रचारका लगातार आन्दोलन होगा और शिक्षाका व्यावहारिक काम होगा। लेकिन, यह काम हो गया तो समझिए कि फिर सब-कुछ हो जायेगा। इसलिए यह काम आसान नहीं हो सकता। सरकारकी तरह धनवान् लोग भी जगानेसे ही जागते हैं। उन्हें जगानेका एक ही साधन है। वह है तपस्या। तपस्या धर्मका पहला और अन्तिम चरण है। मैं समझता हूँ कि गुजरात शिक्षा मण्डल तपस्याकी प्रतिमूर्ति है। उसके मन्त्रियों और सदस्योंमें परोपकारवृत्ति रहे और वे विद्वान् भी हों तो लक्ष्मी वहाँ अपने-आप चली आयेगी। धनवान् लोगोंके मनमें सदा सन्देह रहता है। सन्देहके कारण भी होते हैं। इसलिए यदि हम लक्ष्मीदेवीको खुश करना चाहते हैं, तो [उसके लिए] हमें अपनी पात्रता सिद्ध करनी पड़ेगी।

इसके लिए साधन तो बहुत चाहिए फिर भी, इसे अधिक महत्त्व देनेकी जरूरत नहीं। जिसे राष्ट्रीय शिक्षा देनी होगी, वह पढ़ा न होगा, तो अपना दैनिक कार्य करते हुए पढ़ लेगा, फिर वह पढ़-लिखकर एक पेड़के नीचे बैठेगा और जिन्हें विद्या चाहिए उन्हें