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भाषण : द्वितीय गुजरात शिक्षा सम्मेलनमें

खयाल रखा गया हो, तथा स्वास्थ्यकी सँभाल रखी जाती हो तो कुछ समयमें ही इसके बहुत अच्छे नतीजे देखे जा सकते हैं। ऐसा परिवर्तन करनेके लिए यदि आजके शिक्षकोंका माहवारी वेतन दुगुना कर दिया जाये, तो भी उद्देश्य पूरा नहीं होगा। बड़े परिणाम ऐसे छोटे परिवर्तनसे पैदा नहीं हो सकते। प्रारम्भिक शिक्षाका स्वरूप ही बदला जाना चाहिए। मैं जानता हूँ कि यह बहुत कठिन बात है और इसमें बाधाएँ भी बहुत हैं। फिर भी इसका हल गुजरात शिक्षा मण्डलकी शक्तिके बाहर नहीं होना चाहिए।

यहाँ यह कहना शायद जरूरी है कि मेरा उद्देश्य प्राथमिक स्कूलोंके शिक्षकोंके दोष बताना नहीं है। ये लोग अपनी शक्तिसे बाहर जो काम करके नतीजे दिखा पाते हैं, मेरी धारणा है कि उसका कारण हमारी सुन्दर सभ्यता है। यदि इन्हीं शिक्षकोंको पूरा प्रोत्साहन मिले तो जो नतीजा निकलेगा उसका अनुमान नहीं लगाया जा सकता।

शिक्षा मुफ्त और अनिवार्य होनी चाहिए या नहीं, इस बारेमें मैं कुछ भी कहना ठीक नहीं समझता। मेरा अनुभव कम है। इसके सिवा, जब किसी भी तरहका कर्त्तव्य लोगोंपर लादना मुझे ठीक नहीं मालूम होता तब यह अतिरिक्त कर्त्तव्य उनपर कैसे डाला जाये। मुझे यह बात खटकती रहती है। इस समय हम शिक्षाको मुफ्त और ऐच्छिक रखकर उसके प्रयोग करें, तो यह अधिक समयानुकूल होगा। जबतक हम 'जो हुक्म' के जमानेसे गुजर नहीं जाते, तबतक शिक्षाको अनिवार्य करने में मुझे कई बाधाएँ दिखाई देती हैं। यह विचार करते समय महाराजा गायकवाड़की सरकारका अनुभव कुछ हदतक सहायक हो सकता है। मेरी जाँचका नतीजा अनिवार्य शिक्षाके खिलाफ है; परन्तु वह जाँच नहींके बराबर है इस कारण उसपर जोर नहीं दिया जा सकता। मैं आशा करता हूँ कि इस विषयपर सम्मेलनमें आये हुए सदस्य हमें कीमती जानकारी देंगे।

मेरा यह विश्वास है कि अर्जियाँ देना इन सब दोषोंको दूर करनेका राजमार्ग नहीं है। शासक सहसा महत्त्वपूर्ण परिवर्तन नहीं कर सकते। यह साहस लोक-नेताओंको ही करना चाहिए। अंग्रेजोंके संविधानमें लोकसाहसका विशेष स्थान है। यदि हम यही सोचें कि सरकारके किये ही सब कुछ होगा, तो हमें अपना सोचा हुआ काम करने में सम्भवतः युग बीत जायेंगे। इंग्लैण्डकी तरह यहाँ भी सरकारसे प्रयोग करानेके पहले हमें स्वयं प्रयोग करके बताना चाहिए। जिसे जिस दिशामें कमी दीखे, वह उसी दिशामें कमी दूर करे और अच्छे नतीजे निकालकर दिखाये। वह तभी सरकारसे परिवर्तन करा सकता है। ऐसे साहसके लिए देशमें शिक्षाकी कई विशेष संस्थाएँ कायम करनेकी जरूरत है।

इसमें एक बहुत बड़ी बाधा है हमारा 'डिग्री' का मोह। हम समझते हैं कि हमारा सम्पूर्ण जीवन परीक्षामें उतीर्ण होनेपर निर्भर करता है। इससे जनताकी बड़ी हानि होती है। हम यह भूल जाते हैं कि 'डिग्री' सिर्फ सरकारी नौकरी करनेवाले लोगोंके ही कामकी चीज है। परन्तु जनताकी इमारत कोई नौकरीपेशा लोगोंपर थोड़े ही खड़ी करनी है। हम अपने चारों तरफ देखते हैं कि बिना नौकरीके तमाम लोग बहुत अच्छी तरह जीविकोपार्जन कर सकते हैं। यदि अपढ़ लोग अपनी होशियारीसे करोड़पति हो सकते हैं, तो पढ़े-लिखे लोग क्यों नहीं हो सकते? यदि