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९. राष्ट्रीय शिक्षाकी योजना[१]
बहुत वर्षोंसे कुछ मित्रोंको और मुझे यह महसूस होता रहा है कि हमारी आधुनिक शिक्षा राष्ट्रीय नहीं है और फलस्वरूप इससे प्रजाको जो लाभ मिलना चाहिए वह नहीं मिलता। हमारे बालक शिक्षा प्राप्त करते-करते क्षीण हो जाते हैं। वे पुरुषार्थ नहीं कर पाते तथा उनको मिले ज्ञानका प्रसार जनसमाजमें, यहाँतक कि उनके परिवारों में भी नहीं होता। युवक समुदायके मनमें आधुनिक शिक्षाका उद्देश्य केवल नौकरी प्राप्त करके आर्थिक स्थिति सुधारना ही होता है।
प्रोफेसर आनन्दशंकर बापुभाई ध्रुव लिखते हैं:
- "पिछले पाँच-सात वर्षोंमें जब हिन्दुस्तानकी नींद टूटी और उसने आँखें खोलीं तो उसने शिक्षाकी समस्याको सामने खड़ा पाया। हिन्दुस्तानकी प्रजा अपनेराज्य-संचालनमें भाग लेनेकी माँग करेगी, वह भाग लेगी भी। तो क्या उसकी तीन-चौथाई आबादी अशिक्षित रहेगी? हिन्दुस्तानकी जनता स्वदेशी मालका उपयोग करनेकी प्रतिज्ञा करेगी; तो क्या उनकी शिक्षामें व्यापारिक तथा औद्योगिक शिक्षाका उचित समावेश नहीं होगा? हिन्दुस्तान जब आत्मसम्मानको पहचानेगा तो क्या वह अपने प्राचीन साहित्य, कला, धर्म तथा तत्त्वज्ञानका निरूपण विदेशी विद्वानोंके हाथों होने देगा? इन अभिलाषाओं और जीवनको पूर्ण बनानेकी ऐसी ही अन्य अभिलाषाओं तथा नई परिस्थितियोंको ध्यानमें रखते हुए हम शिक्षाके प्रश्नको आजके युगमें विशेष महत्त्व देते हैं। जब हम इस महत्त्वपूर्ण प्रश्नकी गम्भीरताको समझकर अपनी शिक्षाके कुछ बुनियादी नियमोंका दृढ़तापूर्वक पालन करेंगे तभी हम न केवल अपने तथा अपने देशके प्रति, बल्कि मानवताके प्रति अपने कर्तव्यको पूरा कर सकेंगे।
उन्होंने आगे कहा है :
- गत कालके नेताओंको समाज-सुधार तथा धार्मिक जीवन अत्यन्त सरल प्रतीत होता था; लेकिन ताने-बानेके वे तार जिनसे धर्म बना है विभिन्न रंगोंसे रंजित हैं और उनकी बुनाई बड़ी अच्छी तरह की गई है। और हिन्दू प्रजाका दारमदार इसीपर है। नये युगके लोगोंका यह कर्त्तव्य है कि वे इस सत्यको समझें और उसके अनुसार जीवन व्यतीत करें। प्रचलित शिक्षा प्रणालीमें एक दोष यह है कि यह अधिकांशतः सरकारी नौकर, वकील तथा डॉक्टर तैयार करने तक ही सीमित है।
- ↑ यह लेख गुजराती में मोहनदास करमचन्द गांधोके नामसे प्रकाशित हुआ था। इसमें शीर्षक लेख 'राष्ट्रीय गुजराती शाला' का एक अंश भी शामिल है। देखिये खण्ड १३, पृष्ठ ३३४-३६।