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राष्ट्रीय शिक्षाकी योजना


मैं भारतमें जहाँ-जहाँ घूमा-फिरा हूँ, वहाँ-वहाँ मैंने नेताओंसे इस विषयपर बातचीत की है। और लगभग बिना किसी अपवादके सबने यह स्वीकार किया है कि शिक्षापद्धतिमें परिवर्तन होना चाहिए। निम्नलिखित उद्धरणसे यह स्पष्ट हो जाता है कि सरकारने इस शिक्षा प्रणालीकी रचना जनसमाजकी समस्त आवश्यकताओंको पूरा करनेके उद्देश्यसे नहीं की थी:

हमने शिक्षाको बढ़ावा देनेके कार्यको अत्यन्त महत्त्वपूर्ण माना है; क्योंकि यह केवल बुद्धिका चरम विकास ही नहीं करती बल्कि जो इसका लाभ लेते हैं उनके नैतिक चरित्रको भी ऊँचा उठाती है। और इस प्रकार आपको [सरकारको] ऐसे सेवक तैयार करके देती है जिनकी प्रामाणिक निष्ठामें विश्वास रखकर आप उन्हें भारतमें ऊँचे ओहदोंपर प्रतिष्ठित कर सकें।

शिक्षाके आधारभूत सिद्धान्तोंमें एक सिद्धान्त यह है कि समाजकी आवश्यकताओंको ध्यानमें रखकर इसकी रचना की जानी चाहिए। अपनी पाठशालाओंमें समाजकी आवश्यकताओंका विचार ही नहीं किया जाता।

शिक्षाकी पद्धतिमें परिवर्तन होना ही चाहिए, लेकिन इस सम्बन्धमें [यदि हम] सरकारपर भरोसा रखकर बैठे रहें तो यह समय व्यर्थ गँवानेके समान होगा। सरकार लोकमतकी राह देखेगी और विदेशी होनेके नाते फूँक-फूँककर कदम रखेगी। वह हमारी आवश्यकताओंको नहीं समझ सकती। यह भी हो सकता है कि उसके सलाहकारोंको [स्थितिकी] गलत जानकारी हो अथवा वे स्वार्थी हों। सम्भव है, ऐसे अनेक कारणोंसे सरकारकी मारफत वर्तमान पद्धतिमें महत्त्वपूर्ण फेरफार होते-होते बहुत समय निकल जाये। समय जितना बीत रहा है; प्रजाकी उतनी ही हानि हो रही है। फिर भी इसका मतलब यह नहीं कि हम सरकारसे कोई सहायता ही न लें। सरकारको आवेदनपत्र अवश्य दिये जायें, लोकमत इकट्ठा किया जाये लेकिन अच्छेसे-अच्छा आवेदन-पत्र तो वही है जो हम स्वयं करके दिखायें। लोकमतको शिक्षित करनेके लिए भी यह सीधा रास्ता है, इससे कुछ-एक विद्वानोंसे सलाह-मशविरा करनेके बाद एक राष्ट्रीय पाठशाला खोलनेका प्रस्ताव पास हुआ है।

पाठशालाकी शिक्षा

इस पाठशालामें पूरी शिक्षा मातृ-भाषाके माध्यमसे दी जायेगी। किसी भी देशकी प्रजामें मातृ-भाषाका स्थान प्रमुख होता है लेकिन आश्चर्यकी बात है, हमारे यहाँ यह स्थान अंग्रेजीको प्राप्त है। यह अन्ततः प्रजाके लिए हानिकारक है। प्रथम गुजरात शिक्षा परिषदके अध्यक्षने भी कहा था कि शिक्षा मातृ-भाषाके माध्यमसे दी जानी चाहिए। स्वागत मण्डलके प्रमुखके भाषणमें भी मातृ-भाषाके जरिये शिक्षा देनेकी बातको जोरदार शब्दोंमें व्यक्त किया गया था। १८५४ के सरकारी खरीतेमें इस बातकी विशेष रूपसे चर्चा की गई है। फिर भी समझमें नहीं आता कि शिक्षा-पद्धतिका आधार कैसे परिवर्तित हो गया। खरीतेमें कहा गया है:

देशकी विभिन्न भाषाओंके स्थानपर अंग्रेजीको प्रतिष्ठित करनेकी न तो हमारी इच्छा है और न हम उसे ठीक ही समझते हैं। जिन भाषाओंको आबादी-
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