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पत्र : नरहरि परीखको

आपकी और मेरी उन्नति है । कुछ भी बड़ा परिवर्तन करनेसे पहले मैं भाई महादेवके साथ तो परामर्श कर ही लेता हूँ, परन्तु मुझे हमेशा यह भय बना रहता है कि महादेव अपने अगाध प्रेमके कारण मेरी कमजोरियोंको पहचान नहीं सकते और यदि पहचान लेते हैं, तो उन्हें दरगुजर कर देते हैं। इसलिए मैं उनके सलाह-मशविरेसे पूरा-पूरा लाभ नहीं उठा सकता। आपने अपनी आलोचना मेरे ही पत्रमें लिखी होती, तो मैं ज्यादा खुश होता। मुझे इतना तो निश्चय ही है कि मित्र लोग मेरे सामने विरुद्ध पक्षकी दलील रखें, तो मैं पूरी तरह समझ सकता हूँ, क्योंकि मैं तटस्थ हूँ । इसलिए जहाँ-जहाँ हमारे विचारोंमें मतैक्य न हो, वहाँ-वहाँ मुझे लगता है कि आप सबको अपने मतभेद तुरन्त बता देने चाहिए। इससे मैं बहुत सोचमें पड़ जाऊँगा, ऐसा नहीं है और अपने कार्योंके सम्बन्धमें मुझे स्वयं ही जो काजीका काम करना पड़ता है, उस दुर्दशासे मैं मुक्त हो जाऊँगा । मुझे स्वयं तो यह निश्चय है कि मैं अपने व्रतोंका पालन बड़ी सावधानी और पूरी सफलताके साथ कर सका हूँ। मैंने बकरीका दूध लेना शुरू किया उससे पहले मैंने २४ घंटे तक विचार किया और मैं तो यह कहना चाहता हूँ कि मैंने जहाँ भी रिआयत ली है, वहाँ सबल कारणोंसे ही ली है। मुझे जीनेका बिलकुल आग्रह नहीं है और बीमार हुए पाँच माससे भी अधिक हो गये हैं, तो भी मेरी लापरवाहीकी स्थिति कायम है। मैंने दूध न पीनेका व्रत लिया उस वक्त गाय और भैंसके दूधके सिवा मेरे मनमें दूसरे दूधका खयाल आ ही नहीं सकता था और न था । जिस समय मैंने यह व्रत लिया था उस समय मैंने इसपर खूब सोच-विचार किया था । गायों और भैंसोंपर होनेवाले अत्याचारोंका मुझे बहुत खयाल था, इसीलिए मैंने [ दूध ] न पीनेका व्रत लिया था ।[१]इस समय मेरा क्या कर्त्तव्य है ? इससे जो स्वाभाविक अर्थ निकलता है, उस अर्थको ग्रहण करूँ अथवा जिस अर्थको अत्यन्त सूक्ष्मतासे विचार करनेपर निकाला जाये, उसे लूँ ? मुझे लगता है कि मुझे अपने व्रतोंका उदार अर्थ करना चाहिए और उसकी सीमामें जितनी छूट ली जा सके उतनी लेनी चाहिए। यह छूट लेनेसे, सूक्ष्म रूपमें भी, मेरा व्रत भंग होता है; यह में स्वीकार नहीं करता । वैद्यक शास्त्रके जिन प्रयोगोंको में कर रहा था उन्हें अब निस्सन्देह बड़ा आघात पहुँचेगा, परन्तु वैद्यक शास्त्रका प्रयोग अध्यात्मका विषय नहीं है । दूधके त्यागमें जो संयम और आध्यात्मिकता थी, उनका तो पूरी तरह निर्वाह हुआ है । ज्यों-ज्यों दिन बीतते गये, त्यों-त्यों मित्रोंका आग्रह भी बढ़ता गया। डॉ० मेहता तार देते ही रहते हैं । अन्य सहस्रों हिन्दुस्तानी मेरी बीमारीसे अत्यन्त व्याकुल हो रहे हैं । मेरी बीमारीके कारण बा यद्यपि सदा रुदन और शोक नहीं करती, परन्तु उसकी आत्माको अत्यन्त वेदना तो होती ही है। ऐसे समय में क्या करूँ ? इस प्रश्नका एक ही उत्तर मिल सकता है । व्रतको रंचमात्र भी हानि पहुँचाये बिना जहाँ-जहाँ उदारतासे काम लिया जा सकता है, वहाँ-वहाँ उदारतासे काम लेकर मुझे रिआयत लेनी चाहिए। आज तो इतना कहकर ही इस विषयको समाप्त करूँगा । दूसरी दलीलें तो बहुत हैं । परन्तु जो मुख्य दलील है, वही मैंने आपको दी है । मेरी यह दलील यदि आपको सन्तोषजनक स्पष्टीकरण देती हुई न जान पड़े और आपको अभी भी मेरे

  1. देखिए आत्मकथा, भाग ४, अध्याय ३० ।