पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 15.pdf/११

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भूमिका

इस खण्डमें अगस्त १९१८ से जुलाई १९१९ तककी सामग्रीका समावेश हुआ है : बीमारीके कारण इनमें से पहले छ: माह तो गांधीजीको बरबस बिस्तरमें बिताने पड़े; किन्तु परवर्ती छः महीनोंकी राजनीतिक उथल-पुथल उन्हें राष्ट्रीय संघर्षके बीच खींच लाई। राष्ट्रीय नेतृत्वकी बागडोर इस प्रकार अप्रत्याशित रूपसे गांधीजीके हाथोंमें आ गई। मार्च १९१९ में पारित रौलट कानून और इसके करीब एक ही माह बाद १३ अप्रैलकी शामको अमृतसरके जलियाँवाला बागमें निःशस्त्र स्त्री-पुरुषों और बालकों की एक सभापर नृशंस गोलीबारी की गई। जलियांवाला बागके इस हत्याकांड और इसके बाद जो अत्याचार हुए उनसे राष्ट्रके आत्मसम्मानको गहरी ठेस पहुँची और जो आन्दोलन विधानकी सीमाके भीतर रहकर सामान्य राजनीतिक अधिकारोंके लिए किया जा रहा था उसने एक विशाल राष्ट्रीय संग्रामका रूप ले लिया और अब सरकारकी सदाशयताके बजाय लोकशक्ति उसकी उद्देश्यकी सिद्धिका आधार बन गई। गांधीजी राष्ट्रकी आहत भावनाओं और आत्मसम्मानकी प्रतिष्ठापनाके संकल्पके प्रतीक ही बन गये और उन्होंने सत्याग्रहके सिद्धान्तोंकी शिक्षाका लोगोंमें प्रचार करके इस राष्ट्रीय जागरणको एक विधायक रूप देनेकी कोशिश की। यह खण्ड उनके इस महान् प्रयत्नके आरम्भिक कालकी झाँकियाँ और भारतीय इतिहासमें गांधी-युगके आगमनकी तसवीर पेश करता है ।

खण्डका आरम्भ सूरत में ८ अगस्त १९१८ के एक भाषण से होता है । विषय-वस्तुकी दृष्टिसे इसका स्थान खण्ड १४ में समाविष्ट उन पिछले दो महीनोंकी सामग्रीमें माना जाना चाहिए जब गांधीजी रंगरूटोंकी भरतीके प्रयत्नमें गुजरात और खासकर खेड़ा जिलेका दौरा कर रहे थे। इस दौरेमें उन्होंने जो कठोर परिश्रम किया उसके फल- स्वरूप उन्हें अपने जीवनकी पहली लम्बी और कठिन बीमारी भोगनी पड़ी। अगस्त १९१८ से लगाकर जनवरी १९१९ तक उन्हें दुःख शारीरिक पीड़ा और कष्ट भोगने पड़े। महादेव देसाईने अपनी डायरीमें कहा है, १ अक्तूबर, १९१९ को तो वे गोया 'मृत्युके द्वार' पर जा पहुँचे थे। सारे आश्रमवासी उस दिन सारी रात उनकी शय्याको घेरे गीता द्वितीय अध्यायके उनके प्रिय श्लोकोंका पाठ करते रहे। शल्य क्रियाके बाद जनवरी १९१९ में उनके स्वास्थ्य में सुधार होने लगा ।

राजनीतिक दृष्टिसे छ: महीनोंका यह समय घटना-विहीन है; किन्तु गांधीजीके हृदय-पक्षकी सौम्य और मृदु झाँकियोंकी दृष्टिसे वह बहुत महत्त्वपूर्ण है। सत्यनिष्ठके सरल भावसे उन्होंने इस बीमारीको अपनी भूलोंका अनिवार्य परिणाम माना और उसे शान्ति के साथ सहा । अपने शारीरिक कष्टके प्रति उनका भाव एक तटस्थ दर्शकका सा था; कष्ट शरीरतक ही सीमित रहा; उसकी छाया उनकी आन्तरिक शान्ति और स्वस्थताको नहीं छू सकी । शारीरिक दुर्बलताकी इस परिस्थितिमें उनका मन कुछ अधिक चिन्तन-प्रवण हो गया, जिसका एक परिणाम यह हुआ कि उनके आग्रहों में पहले जैसी