पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 15.pdf/१४

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आठ

लॉके कार्यान्वित करनेके तरीकों और फौजी अदालत (मार्शल लॉ ट्राइब्यूनल) द्वारा दी गई सजाओंके सम्बन्धमें तथ्य हासिल करनेके लिए एक स्वतन्त्र और निष्पक्ष जाँच- समिति नियुक्त की जाये।" (देखिए 'पत्र : एस० आर० हिगनेलको', ३०-५-१९१९) । साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि इन मामलोंमें न्याय न मिलनेपर वे कानूनकी अवज्ञा पुनः आरम्भ करेंगे और वाइसरायको अपने इस इरादेकी सूचना भी दे दी । जूनमें हम उन्हें इसकी तैयारी करते हुए और साथ ही स्वदेशीका प्रबल प्रचार करते हुए देखते हैं। लेकिन जुलाईमें उनका विचार फिर बदल गया, उन्होंने फिर उसे अनिश्चित कालके लिए स्थगित करनेका निर्णय किया और एक अखबारी बयानमें, जो कि सरकार और सत्याग्रहियों -- दोनोंके लिए एक चुनौती ही था, उसके कारणोंको समझाते हुए कहा : "यदि मेरे द्वारा प्रसंगानुसार छेड़ा गया सविनय कानून-भंग ही सुलगाई हुई आग है तो रौलट कानून और उसे विधि-संहितामें बनाये रखनेका सरकारका हठ सारे हिन्दु- स्तान में हजारों जगह आग लगानेके बराबर है । सविनय कानून-भंगको बन्द करानेका एक ही मार्ग है कि सरकार रौलट कानून रद कर दे ।... इसलिए मैंने कानूनको जल्दी रद करानेके लिए ही सविनय - कानून-भंग मुल्तवी रखा है। किन्तु यदि ये कानून साधारण उपायोंसे रद न कराये जा सकें तो उन्हें रद करानेके लिए सत्याग्रही अपने प्राणोंकी बाजी लगायेंगे ।" (पृ० ४८५ )

दूसरे खण्डोंकी भाँति इस खण्डमें भी निजी पत्र काफी संख्यामें हैं और उनसे उसकी श्री-वृद्धि हुई है। इस खण्डके अपने पहले ही पत्रमें वे कहते हैं, "मेरी समझमें तो मैंने किसी अन्य बातका नहीं, उसीकी इच्छाका अनुसरण किया था । वही मुझे घिरते हुए अन्धकारमें से रास्ता दिखाकर पार ले जायेगा ।" ( पृ० ४) जिस समय वे कठिन शारीरिक यन्त्रणासे गुजर रहे थे उस समय आनन्दशंकर बापूभाई ध्रुवके नाम रोगशय्यासे लिखे हुए उनके पत्र में उनका सहर्ष समर्पणका भाव हमें मुग्ध कर देता है: "में बारीकीसे देख सकता हूँ कि प्रकृति-जैसा कोई दयालु नहीं है । प्रकृति ही ईश्वर है । ईश्वर ही प्रेम है और भूलके लिए प्रेमपूर्ण दण्ड दिये ही जाया करते हैं । मैं इस बीमारी में बहुत सीख रहा हूँ।" ( पृ० २५) पुस्तककी समाप्ति कर्ममय प्रार्थनाके सन्देशसे हुई है : "शुद्ध हृदयसे प्रार्थना तो वही कर सकता है जो अपनी प्रार्थनाके अनुरूप कार्य करनेवाला हो ।” (पृ० ५०२)