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१३७. भाषण : सत्याग्रहपर[१]

इलाहाबाद
मार्च ११, १९१९

मुझे खेद है कि मैं आपके सामने स्वयं बोल सकनेमें असमर्थ हूँ । इस सभा दूसरे छोर तक मेरी आवाजका पहुँचना नितान्त असम्भव है । इसलिए मुझे इसीसे सन्तोष कर लेना होगा कि मैंने जो कुछ पंक्तियाँ लिख ली हैं मेरी ओर से वे आपको सुनाई जायेंगी ।

जो व्यक्ति सत्याग्रहकी शपथ लेना चाहता है, उचित है कि वह शपथ लेनेके पूर्व उसपर सांगोपांग सोच-विचार ले । सत्याग्रहके सिद्धान्तोंको समझनेके लिए रौलट विधेयकोंकी मुख्य-मुख्य बातोंको समझना और यह तसल्ली कर लेना भी जरूरी है कि ये विधेयक वास्तवमें इतने आपत्तिजनक हैं कि उनके विरुद्ध सत्याग्रह - जैसी अत्यन्त प्रबल शक्तिका उपयोग किया जाना उचित है। साथ ही यह पक्का विश्वास होना भी आवश्यक है कि अन्तर्मनको मुक्त करने तथा किसी भी व्यक्ति अथवा संस्थाके प्रति पूर्ण निर्भयता प्राप्त करनेके लिए हर प्रकारका शारीरिक कष्ट सहन करनेकी क्षमता मुझमें आ गई है। उसमें एकबार शामिल हो जानेपर पीछे मुड़ना हो ही नहीं सकता। अतएव, सत्याग्रह में पराजयकी कल्पना ही नहीं है । सत्याग्रही मरते दम तक संघर्ष करता रहता है । इसलिए हरएक आदमी इसमें आसानीसे शामिल नहीं हो सकता ।

इसलिए सत्याग्रहीको उचित है कि अपने साथ शरीक न होनेवालोंके प्रति सहनशीलतासे काम ले | सत्याग्रह-सभाओंके कार्य-विवरणोंको पढ़नेपर मैंने प्रायः देखा है कि हमारे इस आन्दोलनमें सम्मिलित न होनेवालोंका उपहास किया जाता है। यह हरकत सत्याग्रह्-शपथकी मूल भावनाके बिलकुल विपरीत बैठती है । सत्याग्रहमें हम आत्मबलिदान, अर्थात् प्रेमके द्वारा अपने विरोधियोंको जीतनेकी आशा रखते हैं । जिस कार्य-प्रणालीके द्वारा हम अपने ध्येय तक पहुँचनेकी उम्मीद करते हैं वह यह है कि हम अपना बरताव इस प्रकारका रखें कि धीरे-धीरे तथा अव्यक्त रूपसे विरोधीका सब विरोध जाता रहे । दो परस्पर विरोधी व्यक्ति या दल स्वभावतः एक-दूसरे से दुष्ट व्यवहार और यदि उभय पक्ष समान बलशाली हों तो हिंसाकी अपेक्षा करते हैं । परन्तु जब सत्याग्रहका अवलम्ब लिया जाता है, तब उस पक्षके मनमें, जिसके विरुद्ध सत्याग्रह किया जाता है, वह अपेक्षा एक सुखद आश्चर्यके रूपमें परिवर्तित हो जाती है । अन्तमें उसका मन पसीजता है और वह अपना कदम वापस ले लेता है, जिसके कारण सत्याग्रह प्रारम्भ किया गया था । मैं आप लोगोंको विश्वास दिलाता


  1. इलाहावादकी एक सार्वजनिक सभामें यह भाषण अंग्रेजीमें सभा के अध्यक्ष श्री सैयद हुसैन द्वारा तथा हिन्दी में गांधीजीके निजी सचिव महादेव देसाई द्वारा पढ़कर सुनाया गया था।