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१. भाषण : सूरत में

अगस्त १, १९१८

मैं आज सूरत में भाषण देने नहीं, बल्कि अडाजन आया था। जैसा कि आपने समाचारपत्रों में पढ़ा होगा मेरे एक खास मित्र श्री सोराबजी शापुरजी [ अडाजानिया ] का, जो दक्षिण आफ्रिकामें सत्याग्रह-संघर्ष में मेरे साथ थे, देहावसान हो गया है।[१]मैं [ अडाजन ] में उनकी पत्नीसे मिलने और शोक प्रकट करनेके लिए आया था । इस बीच [ लोगोंने ] मुझसे भाषण देनेका अनुरोध किया और फलस्वरूप आज यह अवसर मिला है। आप जानते हैं कि समस्त हिन्दुस्तानमें 'स्वराज्य' शब्दकी ध्वनि गूंज रही है। श्री मॉण्टेग्युकी राजनीतिक सुधारोंसे सम्बन्धित योजना प्रकाशित[२] हो गई है और उसके विषयमें लोगों में मतभेद जारी है। समाचारपत्र भी अपने विचार व्यक्त कर रहे हैं। यह योजना अंशत: अच्छी है और अंशतः विचित्र है और इस सम्बन्धमें मैं अपनी राय जाहिर कर चुका हूँ। इसमें हम जो सुधार करवाना चाहते हैं, उसके लिए आग्रह करनेकी आवश्यकता है । अगर हमने अनेक वस्तुओंकी माँग की हो और उनमें से जो मिल जाये उसीसे सन्तुष्ट होकर बैठ रहें तो कहा जायेगा कि हम अपनी माँगोंके प्रति अधिक उत्सुक नहीं हैं। मेरा कहना यह है कि स्वराज्यके सिलसिलेमें हमें जो भी माँगना हो, वह हमें अपना अधिकार समझकर माँगना चाहिए और उसके लिए मृत्युपर्यन्त संघर्ष करना चाहिए, और साथ ही सरकारके पक्षमें रहते हुए उसकी मदद करनी चाहिए। मतलब यह कि वर्तमान महायुद्धमें, फ्रांस और मैसोपोटेमिया आदिमें हमें अपने आदमी भेजने चाहिए। जबतक हम [ युद्धके लिए की जानेवाली ] भरतीमें शामिल नहीं होते तबतक हम स्वराज्यकी माँग नहीं कर सकते । कर्त्तव्यका पालन किये बिना फलकी आशा रखना व्यर्थ है । गुजरातमें और खासकर सूरतमें इस विषयपर भाषण देना बहुत मुश्किल है; कारण [मालूम होता है, ] सूरतकी जनताको न तो इसके सम्बन्धमें कुछ विचार करना है और न किसी निष्कर्षपर पहुँचना है । आजकी उपस्थितिसे ऐसा जान पड़ता है कि उन्होंने इस विषयपर अपनी राय पहलेसे ही कायम कर ली है । जो जनता स्वराज्य प्राप्त करनेके लिए आतुर है उसका सबसे पहला कर्त्तव्य यह है कि वह इन भाषणोंको एकाग्र मनसे और विनयपूर्वक सुने और इनमें से जो उचित लगे उसे ग्रहण करे तथा जो अनुचित लगे उसे छोड़ दे। जबतक लोगों में यह गुण नहीं आ जाता तबतक वे स्वराज्य भोगनेके तो क्या माँगनेके भी योग्य नहीं हैं । ३० करोड़की पूरी आबादी भाषण सुननेके लिए नहीं जा सकती। लेकिन उन सबको समाचारपत्र पढ़ने चाहिए और उनमें से जो उचित लगे, वह ग्रहण करना चाहिए।



१५-१
 
  1. १. देखिए खण्ड १४, “तार: मिली ग्राहम पोलकको", २९-७-१९१८
  2. २. यह जुलाई ८, १९१८ को प्रकाशित हुई थी ।