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स्मट्स-गांधी समझौता

आन्दोलन चलाया जायेगा जिसे १९१३ में स्वर्गीय श्री गोखलेने प्रारम्भ किया था और जिसकी निष्पत्ति १९१४ के समझौते के रूपमें हुई थी ।

तो फिर यह स्मट्स-गांधी समझौता क्या चीज है ? यह बात कुछ अजीब-सी तो लगेगी लेकिन है सत्य कि ट्रान्सवालके भारतीयोंकी स्थितिमें जब कभी कोई सुधार किया गया है, आगे चलकर उनके विरोधियोंने अकसर सफलतापूर्वक उसका उपयोग उन्हें कुछ और अधिकारोंसे वंचित कर देनेके लिए किया है। अतः भारतीय प्रवासी अपनी स्वतन्त्रतापर इन विरोधियों द्वारा हाथ डालनेका बराबर विरोध करते रहे हैं । इस प्रकार उनकी उन्नति निषेधात्मक ढंगकी ही रही है । यह समझौता ३० जून, १९१४ के दो पत्रोंमें दिया गया है। इनमें से एक जनरल स्मट्सने मुझे लिखा और दूसरा उसके उत्तरमें मैंने लिखा । एक दूसरा पत्र भी है, जो मैंने तत्कालीन गृह-सचिव श्री जॉर्जेसको लिखा था, और जिसमें मैंने "निहित स्वार्थी" शब्द- समुच्चयकी अपनी व्याख्या प्रस्तुत की थी। अगर कोई चाहे तो स्वयं ही देख सकता है कि ३० जूनका पत्र मैंने समाजके प्रतिनिधिकी हैसियत से लिखा था और ७ जुलाईका पत्र निजी तौरपर । इस दूसरे पत्रमें मैंने यह दिखाया था कि स्वर्ण-कानून और बस्ती-संशोधन अधिनियमके सन्दर्भ में में “निहित स्वार्थी" का क्या अर्थ लगाता हूँ । हम इस पत्र-व्यवहारको[१] अन्यत्र छाप रहे हैं और जिन पाठकोंको उत्सुकता हो वे उसे स्वयं देख सकते हैं। उसे समझने में उन्हें कोई दिक्कत नहीं होगी । प्रातिनिधिक तौरपर लिखे गये पत्र में निहित स्वार्थोकी परिभाषाको शामिल नहीं करना चाहता था, क्योंकि मुझे ऐसा लगा कि इसमें कोई परिभाषा देनेसे मेरे देशभाइयों द्वारा आगे कोई कार्रवाई करनेपर प्रतिबन्ध लग सकता है; किन्तु मेरे पत्रका उपयोग हमारे अधिकारोंको कम करने के लिए नहीं किया जा सकता। लेकिन मैंने जो परिभाषा दी, उससे वैसे भी मौजूदा अधिकारोंमें कोई कमी नहीं आती । सन् १९१४ में और उससे पहले भी मेरे ७ जुलाई, १९१४ के पत्रमें उल्लिखित दोनों कानूनोंकी ऐसी व्याख्या करनेका प्रयत्न किया जा रहा था जिससे स्वर्ण-क्षेत्रमें रहनेवाले भारतीयोंके अधिकारोंपर बुरा असर पड़े। इसलिए मैंने कहा कि समझौते की शर्तोंकी यह अपेक्षा है कि इन दोनों कानूनोंकी रचनाके समय भारतीय जिन अधिकारोंका उपभोग कर रहे थे वे उनसे छीने नहीं जा सकते, भले ही इन दोनों कानूनोंकी व्याख्या हमारे देशभाइयोंके विरुद्ध ही क्यों न जाए। अपने कथनके समर्थनमें मैंने स्वयं श्री जॉप डी'विलियर्स उस वक्तव्यका हवाला दिया, जिसे उन्होंने साम्राज्य सरकारके लिए तैयार किया था । इसलिए अगर मेरा यह पत्र समझौतेका हिस्सा माना जाए तो इसका एकमात्र उपयोग भारतीयोंकी स्वतन्त्रताको कानूनी तौरपर छीने जाने से रोकना ही हो सकता है, इसके सिवा और कुछ नहीं । कोई कानूनी प्रतिबन्ध लगाने के लिए तो इस पत्रका उपयोग विधान सभाकी समिति भी नहीं कर सकी, हालांकि इस समय किया ऐसा ही जा रहा है । श्री डंकनने इसकी जो व्याख्या की है उसे देना ऊपरकी बातको दुहराना ही होगा ।

  1. देखिए खण्ड १२, पृष्ठ ४२९-३० ।