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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय


करना पड़ता है तथा कितने ही लोगोंको तो कभी-कभी यह भी नसीब नहीं होता; इसका कारण देशमें अनाजकी कमी है।

दूसरा ताप है कपड़ेका अभाव। उसका विचार करते हुए मेरा हृदय रोता है; और यदि में उसका वर्णन करने बैठ जाऊँ तो मेरा विश्वास है कि मैं आपको भी रुला सकता हूँ। कितने ही पुरुष हिन्दुस्तानमें मात्र लँगोटी पहनकर रहते हैं। यदि वे स्वेच्छासे ऐसी स्थितिमें रहें तो दुःखकी कोई बात नहीं है। लेकिन बहुत से लोगोंको तो वस्त्र के अभाव में ऐसी स्थितिमें रहना पड़ता है। इसके अतिरिक्त पुरुष तो लँगोटीमें रह सकते हैं लेकिन बहनोंके सम्बन्धमें तो हम वैसा नहीं चाहते। फिर भी मैंने अनेक बहनोंको देखा है जिन्हें ऐसी स्थितिमें रहना पड़ता है । चम्पारन में नल-दमयन्ती जैसी स्थितिवाले अनेक स्त्री-पुरुषोंको मैंने देखा है, मैंने उनके साथ बातें की हैं। दूसरे वस्त्रके अभाव में वे अपने वस्त्र धो भी नहीं सकतीं। वहीं गंगा बहती है, इसलिए पानीका तो अभाव नहीं है। लेकिन धोकर पहनें[१] तो क्या पहनें? वस्त्रके अभाव में हम आज नग्नावस्थामें ही हैं।

तीसरा ताप इन दो तापोंके परिणामस्वरूप उत्पन्न हुआ है। भुखमरी और वस्त्राभावके कारण हिन्दुस्तान अनेक रोगोंसे पीड़ित है। लेकिन मैं उनकी बात करने नहीं आया। पहले दो तापोंका निवारण हो सके तो तीसरे तापका निवारण स्वयंमेव हो जायेगा, इसलिए मैं उसको छोड़ देता हूँ। हममें से सभी पहले तापका निवारण करनेकी दिशामें समर्थ नहीं हो सकते। अन्नाभावको दूर करनेका प्रयत्न करनेके लिए हममें किसानों जैसा बल चाहिए, खेत चाहिए और भी अनेक बातें चाहिए। ये सारी बातें हरएकके पास नहीं हो सकतीं। लेकिन दूसरे तापका निवारण तो सभी कर सकते हैं। उस दिशामें बालक-बालिका सभी मदद कर सकते हैं। एक मिलका निर्माण करनेकी अपेक्षा उतना ही कपड़ा बालकों और स्त्रियोंसे तैयार करवाना कम कठिन है। मैंने अनेक मिल मालिकोंके साथ बातचीत की है। उनका कहना है कि सारे हिन्दुस्तानकी आवश्यकताको पूरा करने जितना कपड़ा तैयार करने योग्य मिलोंकी स्थापनामें ५० वर्ष लगेंगे। लेकिन उन्हीं मिल मालिकोंका यह भी कहना है कि यदि स्त्रियाँ सूत काने लगें और बुनकर बराबर बुनने लगें तो दो अथवा तीन वर्षोंमें हम अपनी जरूरतका वस्त्र बना सकनेकी स्थितिमें पहुँच जायें।

भारतमें अभी ऐसे स्थल हैं जहाँ धनाढ्य और निर्धन बहनें हाथसे सूत कातती हैं और बुनकरोंसे उस सूतके वस्त्र बुनवाकर पहनती हैं। पंजाबमें तो विवाह अथवा मांगलिक अवसरोंपर हाथ-कते सूतसे बने वस्त्र पहननेका रिवाज है। ये वस्त्र पवित्र माने जाते हैं। देशमें ऐसे और भी अनेक अंचल हैं लेकिन हमें उनकी खबर नहीं है। अपनी जरूरतका कपड़ा खुद तैयार करना कोई मुश्किल काम नहीं है। दोष सिर्फ हमारे आलस्य और हमारी जड़ताका है। इस प्रयासमें धनकी कोई जरूरत नहीं; उत्साहकी और अपूर्व प्रेमकी आवश्यकता है और आवश्यकता है इस उत्साह और अपूर्व प्रेमके साथ ज्ञानके समन्वय की।

  1. गांधीजीको यह अनुभव भीतिहरवा गाँवमें हुआ था; देखिए आत्मकथा भाग ५, अध्याय १८।