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भाषण : अहमदाबादके गुजरात कॉलेजमें

हमारे समक्ष और हमारे बीच इतने वर्षोंसे रह रहे हैं, तो भी हम आपको पहचान नहीं पाये हैं।" ये उद्गार बिलकुल सही हैं। मैं जबसे गुजरात में आया हूँ तभीसे देख रहा हूँ कि हम लोग इस व्यक्तिको पूरी तरह नहीं पहचान सके हैं, हमने इनकी कद्र नहीं की है। इससे उन्होंने तो कुछ भी नहीं खोया, लेकिन गुजरातने बहुत-कुछ खो दिया है। इनकी विद्वत्ताके सम्बन्धमें तो वे लोग ही, जो मेरी अपेक्षा इन्हें अधिक अच्छी तरह पहचानते हैं, कह सकते हैं। मेरे लेखे तो इनका चारित्र्य, व्यवहार और रहन-सहन ही इनकी सच्ची विद्वत्ता है।

आनन्दशंकरभाई गुजरातकी अमूल्य निधि हैं। हमें इस निधिका जैसा उपयोग करना चाहिए था वैसा हम नहीं कर सके हैं। इन्होंने कितनी ही उलझनोंको अपने औदार्य, चातुर्य और कौशलसे सुलझाया है। मैंने इनके लेखोंको पढ़ा है और अब भी पढ़ता हूँ और मुझे लगता है कि हमें उनसे बहुत कुछ सीखना है। यदि गुजरातने इनके लेखोंसे पूरा लाभ उठाया होता तो गुजरातका जीवन कितना आगे बढ़ गया होता, इसका में अनुमान नहीं कर सकता। गुजरातको आनन्दशंकरभाईके रूप में सारे हिन्दुस्तानको अपनी भेंट अर्पित करनी है। यदि वे बम्बई जाते तो मुझे बम्बई [के लोगों] से ईर्ष्या होती। बम्बई जानेकी अपेक्षा अहमदाबादमें ही बने रहें, यह ज्यादा अच्छा है। बम्बईके लोग निस्सन्देह इनसे कुछ-न-कुछ जरूर ले सकते थे, लेकिन बम्बई गुजरात है और गुजरात बम्बई।

गुजरात अब आनन्दशंकरभाईको काशी भेजकर भारतको एक अमूल्य भेंट दे रहा है। भारत इस भेंटका जो लाभ उठायेगा उसके लिए हम जितना गर्व करें कम है। अंग्रेजी मुहावरेके अनुसार यह तो नहीं कहा जा सकता कि ये भरपूर जवानी में हैं। इनके परिवारने बहुत त्याग किया है।

पंडितजीने[१] आनन्दशंकरभाईकी ओर दृष्टिपात किया है। इसका कारण केवल इनकी विद्वत्ता ही नहीं है। उन्होंने इन्हें इसलिए भी चुना है कि यह दिखाया जा सके कि संस्था किस खूबी से चलाई जा सकती है और भारतीयों में योजना-क्षमता और व्यवहार कुशलता है या नहीं। हिन्दू विश्वविद्यालयकी जटिल गुत्थियोंको भारतवर्षमें यदि कोई व्यक्ति सुलझा सकता है तो वह व्यक्ति आनन्दशंकरभाई ही हैं। और अन्तमें मेरी यही शुभ-कामना है कि ईश्वर उन्हें दीर्घायु करे, हिन्दू विश्वविद्यालयको उन्नतिके जिस शिखरपर चढ़ना चाहिए वह उसपर चढ़ सके और भारत तथा गुजरात उससे लाभान्वित हों।

हस्तलिखित गुजराती रिपोर्ट (एस० एन० ६४१४) से।

  1. पंडित मदनमोहन मालवीय।