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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय


परन्तु भारतको जिस वास्तविक सुधारकी अपेक्षा है, वह है सच्चे मानोंमें स्वदेशीका पालन। हमारे सामने तात्कालिक समस्या यह नहीं है कि देशकी सरकार कैसे चलाई जाये बल्कि यह कि हम अपने लिए भोजन और वस्त्र कैसे जुटायें। हमने १९१८ में वस्त्र खरीदनेके लिए साठ करोड़ रुपये भारतसे बाहर भेजे थे। यदि हम इसी रफ्तारसे विदेशी वस्त्र खरीदते जायें तो हम भारतीय बुनकरों और कताई करनेवालोंको प्रतिवर्ष इतनी राशिसे वंचित करते रहेंगे और "इसके बदले उनके लिए लगभग कोई भी काम नहीं जुटायेंगे।"[१] फिर इसमें आश्चर्य ही क्या कि हमारे यहाँकी जन-संख्याका दशांश बुरी तरह भुखमरीका शिकार है और शेष जन संख्याका अधिकांश जरूरतसे काफी कम भोजन प्राप्त कर पाता है। जिनके भी आँखें हैं वे खुद देख सकते हैं कि "मध्यमवर्गके लोगोंको जरूरतसे बहुत ही कम भोजन मिल पाता है और हमारे बच्चोंको पर्याप्त मात्रामें दूध भी नहीं मिल पाता।"[२] यह सुधार योजना कितनी ही उदारतापूर्ण क्यों न हो, वह निकट भविष्य में समस्याका समाधान करने में समर्थ नहीं हो सकती। परन्तु स्वदेशीसे "अभी इसी समय"[३] यह समस्या हल हो सकती है।

पंजाबने तो मेरे तई इसे और भी स्पष्ट कर दिया है कि समस्याका यही एक हल है। ईश्वरके प्रति हमें कृतज्ञता प्रकट करनी चाहिए कि पंजाबकी महिलाओंने रूप-सौन्दर्यके साथ-साथ अपने हाथके हुनरको भी बनाये रखा है। वे किसी भी वर्गकी हों, सभी कताईकी कलामें निपुण हैं। अन्य अनेक गुजराती महिलाओंकी तरह उन्होंने अभीतक अपने चरखे आगमें नहीं झोंके हैं। वे जब सुतके गोलेपर-गोले मेरी गोदमें फेंकती चलती हैं तो मेरे हर्षकी सीमा नहीं रहती। वे स्वीकार करती हैं कि उनके पास कताईके लिए काफी समय रहता है। वे मानती हैं कि उनके हाथके कते सूतसे बुना खद्दर मशीनोंके कते सूतसे बने वस्त्रसे कहीं उत्तम होता है। हमारे पूर्वज विदेशी बाजारोंका मुँह ताके बिना ही अपने लिए कहीं कम मेहनत और बड़ी आसानीके साथ अपनी वस्त्रोंकी आवश्यकता पूरी कर लेते थे।

यदि हम समय रहते नहीं चेतेंगे तो यह सुन्दर कला—जो साथ ही इतनी सरल भी है—लुप्त भी हो सकती है। पंजाब इस कलाकी सम्भावनाओंको सिद्ध करता है। परन्तु पंजाब भी बड़ी तेजीसे इस मामलेमें पिछड़ता जा रहा है। वहाँ भी हाथ के कते सूतका उत्पादन हर वर्ष घटता जा रहा है। इसको मतलब है हर परिवारकी निर्धनता और बेकारीमें वृद्धि। जिन महिलाओंने कताईका काम बन्द कर दिया है वे इससे बचनेवाले समयका कोई सदुपयोग नहीं कर पातीं, गपशप करनेके अलावा उनके पास कोई काम ही नहीं रहता।

इस बुराईको दूर करनेका केवल एक ही मार्ग है। आवश्यकता इस बातकी है। कि प्रत्येक शिक्षित भारतीय अपने परिवारकी महिलाओंको एक चरखा भेंट करना और कताई सीखनेकी सुविधायें जुटाना अपना प्रथम कर्त्तव्य समझने लगे। तब फिर हर रोज कई लाख गज सुत तैयार किया जा सकता है। और यदि प्रत्येक शिक्षित भारतीय हाथकते सूतका वस्त्र पहननेके लिए तैयार हो जाये तो वह भारतके इस एकमात्र कुटीर उद्योगको बढ़ावा देगा और उसकी सहायता करेगा।

  1. मूलमें ये अंश रेखांकित हैं।
  2. मूलमें ये अंश रेखांकित हैं।
  3. मूलमें ये अंश रेखांकित हैं।