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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

चीज छीन लेना ताकतके जोरपर निकाला गया हल माना जायेगा। इस विजयकी घड़ीम इंग्लैंडको या मित्रराष्ट्रोंको बहुत ही सावधानीके साथ न्यायपूर्ण आचरण करना चाहिए। तुर्कोको सर्वथा शक्तिहीन बना देना न केवल अनुचित होगा, बल्कि इससे पूरी गम्भीरताके साथ जो घोषणाएँ की गई हैं, जो वचन दिये गये हैं, वे घोषणाएँ और वचन भी भंग होंगे। अब हम तो इस समय यही चाहेंगे कि वाइसराय महोदय, दक्षिण "आफ्रिकाके अनाक्रामक प्रतिरोध" आन्दोलनके[१] दौरान लॉर्ड हाडिंग द्वारा अपनाये गये रुखका अनुकरण करते हुए, पूरे साहसके साथ खिलाफत आन्दोलनका नेतृत्व करनेको सामने आयें, और इस प्रकार अपने पूर्वाधिकारीकी तरह ही इस आन्दोलनका स्पष्ट और दृढ़ दिशानिर्देश करें ताकि कहीं ऐसा न हो कि यह आन्दोलन आवेशपूर्ण और गलत नेतृत्वमें पड़कर भयंकर परिणामोंका कारण बन जाये।

लेकिन परिस्थिति वाइसरायकी अपेक्षा हम हिन्दुओं और मुसलमानोंके ऊपर निर्भर है और हिन्दुओं अथवा वाइसरायसे भी अधिक मुसलमान नेताओंके ऊपर निर्भर करती है।

मुसलमान भाई तो पहले से ही अधीरताके लक्षण प्रकट कर रहे हैं और यह अधीरता किसी भी दिन पागलपनका रूप धारण कर सकती है, जिसका अवश्यम्भावी परिणाम हिंसा ही होगा। और मेरी तो उत्कट अभिलाषा यही है कि यह बात सबके दिमागमें उतार सकूँ कि हिंसा करना आत्मघात करनेके समान है।

मान लीजिए मित्रराष्ट्र या समझिए इंग्लैंड ही मुसलमानोंकी माँगे स्वीकार नहीं करता तो! लेकिन श्री मॉण्टेग्युने जिस बहादुरीसे मुसलमानोंके पक्षका समर्थन किया है और श्री लॉयड जॉर्जने अपनी घोषणाकी जो व्याख्या की है उसमें तो मुझे आशा ही दिखाई देती है। यह सही है कि श्री जॉर्ज कुछ आगा-पीछा करते दीखते हैं, फिर भी वे इस घोषणाके अन्तर्गत न्याय दिला सकते हैं। लेकिन हमें हर हालतमें बुरेसे-बुरे परिणामके लिए तैयार रहकर अच्छेसे-अच्छे परिणामकी अपेक्षा रखते हुए उसके लिए प्रयत्न करना चाहिए। अब सवाल यह है कि हम प्रयत्न किस प्रकार करें।

हमें जो-कुछ नहीं करना चाहिए, वह तो स्पष्ट है।

(१) मनसा, वाचा और कर्मणा, किसी भी प्रकारसे हमें हिंसा नहीं करनी चाहिए।

(२) इसलिए बदला लेने या सजा देनेके खयालसे ब्रिटिश मालका बहिष्कार नहीं करना चाहिए। मेरे विचारसे बहिष्कार एक प्रकारकी हिंसा ही है। इसके अतिरिक्त, अगर यह वांछित हो तब भी बिलकुल अव्यावहारिक है।

(३) जबतक हमारी न्यूनतम मांगें पूरी नहीं हो जाती तबतक चैन नहीं लेना है।

(४) खिलाफतके सवालके साथ दूसरे सवालों, उदाहरणार्थ मिस्रके सवाल, को नहीं मिलाना चाहिए।

  1. सन् १९१३ और १९१४ में।