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आठ

विरोधी नीतिके फलस्वरूप होनेवाली पंजाबकी दुर्घटनाको बिलकुल सही दृष्टिकोणसे दिखाकर एक उचित पृष्ठभूमिमें प्रस्तुत किया गया है। विवरणमें उल्लिखित निष्कर्ष और उसके सम्बन्धमें की गई मांगोंको गांधीजीने बड़े संयमके साथ प्रस्तुत किया। कोई भी माँग ऐसी नहीं थी कि जिसे अनुचित कहा जा सके और न उन मांगोंकी भाषा ही किसी प्रकारसे असंयत थी। इसके विपरीत सरकारी समिति द्वारा प्रस्तुत रिपोर्टमें पंजाबकी घटनाको केवल कानून और प्रशासनकी एक समस्या मानकर विचार किया गया था और सरकारी कर्मचारियोंके अत्याचारोंको केवल गलतफहमीके कारण उत्पन्न भूल-चूकका नाम देकर नाममात्रकी सजा देनेकी सिफारिश की गई थी। गांधीजीने इसे 'चोर-चोर मौसेरे भाई' (पोलिटिकल फ्रीमैसनरी) की संज्ञा दी और कहा कि यह रिपोर्ट इस बातका अतिरिक्त कारण है कि हम सरकारसे सहयोग करना बन्द कर दें।

राष्ट्रीय जीवनमें राजनीतिक कार्रवाइयाँ सामूहिक उन्नतिकी दिशामें केवल एक कदम है, इस बातको गांधीजी जब अवसर मिलता था तभी लोगोंके सामने पेश करते रहते थे। उनका कहना था कि राजनीतिक क्षेत्रके अतिरिक्त अनेक ऐसे क्षेत्र ह जिनमें जनताको अपना कर्तृत्व सफल करना चाहिए। अप्रैल १९२० में गांधीजी मित्रोंके अनुरोधपर अखिल भारतीय होमरूल लीगमें शामिल हुए। उन्होंने उसकी अध्यक्षता भी स्वीकार की। और तब वहाँ अपने कार्यक्रमकी अनेक मुख्य बातोपर जोर दिया; स्वदेशी, हिन्दू-मुस्लिम एकता, राष्ट्रभाषाके रूपमें हिन्दुस्तानीका प्रचार और क्षेत्रोंकी हदतक क्षेत्रीय भाषाओंका सार्वजनिक कामोंमें उपयोग। (पृष्ठ १०७-८) अन्य स्थानोंपर उन्होंने अस्पृश्यता निवारणकी जरूरतपर भी बहुत जोर दिया।

साहित्यके विषयमें भी उन्होंने यह कहा कि उसे राष्ट्रीय आकांक्षाओंका प्रतिबिंब बनना चाहिए और राष्ट्रके प्रयत्नोंको अग्रसर करने में मदद करनी चाहिए। ३ अप्रैल, १९२० को अहमदाबादमें आयोजित छठी गुजरात साहित्य परिषद्में उन्होंने साहित्यिकोंसे कहा कि वे जनताको दृष्टिमें रखकर लिखें ताकि जिस संस्कृतिको हम सेवा कर रहे हैं, वह संस्कृति सन्त और किसानको पास-पास लानेमें समर्थ हो सके। जो साहित्य केवल कल्पनासे उत्पन्न होता है और कल्पनाको ही अभिव्यक्त करता है, गांधीजीके लेखे, वह निकम्मा है। अपनी राय व्यक्त करते हुए वे किसी भी विद्वद्-समाजमें हिचकिचाते नहीं थे, यहाँतक कि सौन्दर्य-प्रधान जीवनके हिमायती रवीन्द्रनाथ ठाकुरके सामने भी उन्होंने अपने इस मतको स्पष्ट शब्दोंमें व्यक्त किया। इन दोनों महापुरुषोंके दृष्टिकोणमें जो अन्तर था, आगे चलकर वह सार्वजनिक विवादका विषय भी बना।

गांधीजीने यह बात हमेशा खुलकर ही कही कि उनके जीवनका उद्देश्य मोक्ष पाना है। दूसरे शब्दोंमें कहें तो उन्होंने सदा यही बात स्पष्ट की कि वे मूलतः एक धार्मिक पुरुष हैं। धर्मसे उनका अभिप्राय "... हिन्दू धर्मसे नहीं है जिसकी मैं बेशक और सब धर्मोसे ज्यादा कीमत आँकता हूँ। मेरा मतलब उस मूल धर्मसे है जो हिन्दू धर्मसे कहीं उच्चतर है, जो मनुष्यके स्वभावतक का परिवर्तन कर देता है, जो हमें अन्तरके सत्यसे अटूट रूपसे बाँध देता है और जो निरन्तर अधिक शुद्ध