पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 17.pdf/१३

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नौ

और पवित्र बनाता रहता है। (पृष्ठ ४४२) वे ऐसी धार्मिक मनोवृत्ति रखते हुए और वास्तव में राजनीतिकी ओरसे बिलकुल उदासीन रहते हुए भी केवल राजनीतिके क्षेत्रमें ही किसलिए लगे रहते हैं, इसे स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा: "इसका कारण सिर्फ इतना ही है कि राजनीतिक विषयोंमें इस तरह भाग लिये बिना आज मैं अपने धर्मकी रक्षा कर सकता हूँ अथवा नहीं, इस बारे में मुझे शंका है।" (पृष्ठ ५४) यह बात भी नहीं है कि केवल कर्मयोगकी भावनासे निष्काम सेवाका उद्देश्य सामने रखकर उन्होंने राजनीतिक या सामाजिक क्षेत्रमें कदम रखा हो; उनका सिद्धान्त था कि जो व्यक्ति अपने व्यक्तिगत जीवनको पूर्ण बनानेकी इच्छा करता है वह अपने आसपासकी उपेक्षा कर ही नहीं सकता। उनकी मान्यता थी कि यदि संसारकी सेवा करनी है तो हमें उसके नैतिक और आध्यात्मिक जीवनमें परिवर्तन लानेके उपाय करने पड़ेंगे। गोखलेने राजनीतिमें आध्यात्मिकताके प्रवेशपर जोर दिया था। गांधीजीने भी इस सिद्धान्तके प्रति जागरूक रहकर प्रायः उसपर जोर दिया। अखिल भारतीय होमरूल लीगके सदस्योंसे उन्होंने कहा: "जहाँ मैं लीगसे यह उम्मीद नहीं करता कि सविनय अवज्ञाके मेरे तरीकोंमें वह मेरा अनुसरण करे, वहाँ मेरी पूरी-पूरी यह कोशिश भी रहेगी कि हमारे राष्ट्रकी सभी गति-विधियोंमें सत्य और अहिंसाको स्वीकार करवा सकूँ।" (पृष्ठ ३८२)

यद्यपि गांधीजीको अपने और दूसरोंके जीवन शुद्ध और पवित्र बनानेकी पक्की धुन थी तथापि वे दूसरोंके प्रति सदैव उदार भी बहुत थे--किसी शिशुकी तरह भोले और स्नेहशील। जिन व्यक्तियोंका उनसे निजी सम्बन्ध आया या जो विभिन्न कार्यक्षेत्रोंमें उनके सहयोगी बने, उन सबके सामने वे आचारका एक आदर्श उपस्थित करते थे और उस आदर्शसे च्युति सहन नहीं करते थे। किन्तु तदनुसार आचरण करने में जिन कठिनाइयों और संघर्षों में से सम्बन्धित व्यक्तियोंको गुजरना पड़ता था, उनकी ओर वे पूरा ध्यान देते थे और उनकी परेशानियोंको हल करनेके लिए रात-दिन एक कर देते थे। फैरिंग और महादेव देसाईके नाम लिखे हुए जो पत्र इस खण्डमें सम्मिलित किये गये हैं, वे इस दृष्टि से द्रष्टव्य हैं और उनसे यह भी मालूम हो जाता है कि गांधीजीके शब्द किस तरह दुखते हुए घावोंपर अचूक मरहमका काम करते थे।