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पत्र: नरहरि परीखको

यहाँ आया है उन्हें मानकर कोई आये तो उसे हम इनकार कैसे कर सकते हैं--यह बात मेरी समझमें नहीं आती। इसके बावजूद तुम जो चाहोगे मैं उसे ही मान लूँगा। अन्ततः कार्यका भार तो तुमपर ही है। इसलिए तुम्हारे वाक्यको मैं अपना कानून मानूँगा। किन्तु मुझे जो कहना होगा सो तो कहूँगा। जिस बच्चेको अपने आश्रमके स्कूलमें भर्ती करें उसे अन्तत: गुजरातीके माध्यमसे ही शिक्षा लेनी होगी इस सूत्रको मैं बिलकुल स्वीकार करता हूँ। दीपकके सम्बन्धमें मैंने यह नहीं कहा है कि उसे बँगलाकी मार्फत शिक्षा दी जाये। मैंने तो यह चाहा कि अगर हम उसकी बँगला भाषाके लिए कुछ प्रबन्ध कर सकते हों तो करें। यह बात तो दीपकपर ही लागू. मानता हूँ। दीपककी स्थितिका दूसरा कोई लड़का तो देशमें है नहीं, जिसे हमारे पास आना पड़े। सरलादेवी एक ही बंगालिन हैं जिन्होंने पंजाबीसे विवाह किया है और अपने बच्चेकी मातृभाषाको बनाये रखने का आग्रह करती है। इस तत्त्वका पोषण किया जाना चाहिए। तुम सब अर्थात् तुम, काका आदि बँगला जानते हो और अभी तो मणीन्द्र वहाँ है, इसीसे मैंने इच्छा की थी कि दीपक अपना बँगलाका अभ्यास जारी रखे।

दूसरी बात, दीपकके पत्र लिखने के एक निश्चित समयके सम्बन्धमें: इस बारेमें मुझे पूरा विश्वास है कि तुमने अपने विचार व्यक्त करने में उतावली दिखाई है। नियमित रूपसे पत्र लिखनेका काम यान्त्रिक ही होना चाहिए। जो भी वस्तु स्वाभाविक--हार्दिक--हो जाती है वह यान्त्रिक ही होती है। महादेवको तुम दो बजे फलोंका रस देते हो, उस क्रिया में तुम ऐसे तल्लीन हो जाते हो कि वह क्रिया यान्त्रिक हो जाती है। 'यान्त्रिक 'के दो अर्थ हैं। एक वह जो मूढ़ दशामें यंत्रकी भांति किया गया अथवा हुआ हो; दूसरा वह जो यन्त्रकी तरह नियमपूर्वक किया गया अथवा हुआ हो। पहला त्याज्य है दूसरा ग्राह्य है। अपनी माताके प्रति दीपकका उज्ज्वल प्रेम हो तो पत्र लिखना अच्छा है, यह जानने के बाद उसके लिए अमुक समय निर्धारित करके और उसे पवित्र समझकर वह उसका पालन जरूर करेगा। हररोज एक ही समयपर हृदयसे किया गया गायत्रीका पाठ जितना फलीभूत होता है उतना नियम बिना रोज अथवा किसी भी समयपर किया गया पाठ फलीभूत नहीं होता। नियममें ही जीवनका उत्कर्ष है। मुझे लगता है कि अब तुम्हारे पास इसके बारेमें कहनेको कुछ बाकी नहीं बच रहता। लेकिन अगर रहता हो तो मिलनेपर समझाना अथवा मुझे काशीके[१] पतेपर लिखना।

आज सरगोधामें हूँ। कल लाहौर और परसों रविवारको काशीकी ट्रेनमें। महादेवसे मैने कल माफी मांगी है। मेरा हेतु तो अत्यन्त शुद्ध था। मैने जिस समय यह पत्र लिखा था उस 'कामये दुःखतप्तानाम् प्राणिनामातिनाशनम्' श्लोकका स्मरण किया था। सबके दुःख एक जैसे ही है--ऐसी कल्पना तो मैंने नहीं की थी। मैं उनके दुःखसे दुःखी होता रहता था और उसकी दवा करता रहता था। हमारी भावनाएँ कितनी जटिल होती है और हमारी तपश्चर्या कितनी अल्प है,

  1. गांधीजी १६ फरवरीसे लेकर २१ फरवरी, १९२० तक बनारसमें थे।