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पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 17.pdf/५९६

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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय


इस सबका मूल अज्ञान ही है। हम अपने बलके बारेमें अन्धकारमें हैं, इसीसे दूसरे दोष भी आ जाते हैं। हमें अपने भीतर निहित आत्माके सम्बन्धमें ही शंका है, उसके गुणोंके प्रति हममें श्रद्धा नहीं है। यह अज्ञान केवल अक्षरज्ञानसे ही दूर होने वाला नहीं है, विचार परिवर्तन से ही वह दूर हो सकता है। अक्षरज्ञानकी उस हद-तक ही जरूरत है जिस हृदतक उससे हमारी विचार-शक्तिका विकास हो तथा हमें सारासारका निर्णय करना आ जाये।

इसलिए हम जबतक स्वार्थ छोड़कर परमार्थको ग्रहण नहीं करते, आत्मत्याग करना नहीं जानते, सत्यका ही आश्रय नहीं लेते, भय छोड़कर धैर्यको नहीं अपनाते, दम्भका त्याग नहीं करते, अज्ञानको तिलांजलि नहीं देते तबतक देशकी वास्तविक उन्नति होना सम्भव नहीं।

[गुजराती से]
नवजीवन, २७-६-१९२०
 

२४९. टिप्पणियाँ
शिक्षित अन्त्यज

पिछले अंकमें दूसरी काठियावाड़ अन्त्यज परिषद्का वृत्तान्त प्रकाशित किया गया है। उसमें बम्बईके कुछ शिक्षित अन्त्यजोंकी आलोचना की गई है। मैंने यह भी सुना है कि वे आम बातचीत में "आपके हिन्दू धर्ममें यह है", "आपके शास्त्र ऐसा कहते हे", "ट्रेन में कुछ हिन्दू थे", ऐसी भाषाका प्रयोग करते हैं। वे स्वयं हिन्दू नहीं हैं, ऐसी बात अन्त्यजोंको मनमें नहीं लानी चाहिए। हिन्दू धर्मका दावा करनेवाले उन्हें दुःख देते हैं, क्या इसीलिए उनका हिन्दू धर्मको तिरस्कृत करना उचित है? एक परिवारमें रहनेवाले व्यक्तिको यदि परिवारके दूसरे लोग दुःख दें तो इससे वह परिवारको त्याग नहीं देता, बल्कि परिवारके सुधारके लिए प्रयत्न करता है, वैसा ही शिक्षित अन्त्यजों को भी करना चाहिए। शिक्षित अन्त्यजोंसे अभिप्राय उन बन्धुओंसे है जिन्होंने बम्बई में रहकर शिक्षा प्राप्त की है और जो अन्त्यजोंके नेता होनेका दावा करते हैं। हमारा धर्म अपने धन्धेकी निन्दा करना भी नहीं है। जिसमें अप्रामाणिकता न हो ऐसा कोई धन्धा हीन नहीं कहला सकता। अन्त्यज सामान्यतया बुनाईका काम, खेतीका काम तथा मैला साफ करते हैं। पहले दो धन्धोंसे जनताको अन्न तथा वस्त्र मिलते हैं तथा तीसरे धन्धेके द्वारा लोगोंके स्वास्थ्यकी रक्षा होती है। इन तीनों धन्धोंके बिना जनताका निर्वाह हो ही नहीं सकता। इस धन्धेको नीच अथवा हलका कहनेका कारण केवल अज्ञान है। शिक्षा प्राप्त करके अपने धन्धेका त्याग करनेकी बजाय, उस धन्धेको पवित्र बनाने की दिशा में हमारा प्रयत्न होना चाहिए। कहने का तात्पर्य यह है कि हम सब अपना-अपना धन्धा करते हुए नीतिमान, शिक्षित तथा स्वच्छ बनें और दिखाई दें।

[गुजराती से]
नवजीवन, २७-६-१९२०