पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 18.pdf/११

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

 

भूमिका

इस खण्डमें १ जुलाईसे १७ नवम्बर, १९२० तक अर्थात् साढ़े चार महीनेकी सामग्री समाहित है। इस अवधिका सर्वाधिक दिलचस्प अंश गांधीजीका वह सार्वदेशिक दौरा है जिसमें उन्होंने लोगोंके बीच घूम-घूमकर अंग्रेजी साम्राज्य और भारत सरकारके खिलाफ प्रचार किया। इस दौरेमें उन्होंने तात्कालिक सत्ताको जगह-जगह रावणराज्य कहकर वर्णित किया है। उनके समकालीन नेतागण साम्राज्य और सरकार पर किये गये इस आक्रमणकी तीव्रता से चकित हुए होंगे; कहा तो यहाँतक गया कि उनका यह आक्रमण अहिंसा के उनके अपने सिद्धान्त के साथ मेल नहीं खाता। वास्तव में गांधीजी इतने दीर्घ-काल से ब्रिटिश सरकार के प्रति मन में निष्ठा का भाव पालते चले आ रहे थे और जब उनकी वह निष्ठा चकनाचूर हुई तो निस्सन्देह उन्होंने उसे बड़ी कठोर भाषा में व्यक्त किया। भारत सरकार जिस आसुरी पद्धति का प्रतिनिधित्व करती थी, उन्होंने उसके विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी और देश की जनता को उस दैत्याकार बुराई का ठीक-ठीक साक्षात्कार कराना आवश्यक माना। किन्तु उन्होंने यह बात हर बार स्पष्ट की कि वे ब्रिटिश राष्ट्र से नहीं बल्कि उसमें निहित आसुरी तत्त्व से संघर्ष कर रहे हैं। उन्होंने यह भी कहा कि इस तत्त्व को परास्त करने का एकमात्र उपाय राष्ट्रीय जीवन में शताब्दियों से रूढ़ सारी बुराइयों को हटाकर उसका पुनर्गठन करना है। सरकार को सहयोग देने से हाथ खींच लेना इस कार्यक्रम का पहला ही कदम था; इसलिए वे श्रोताओं और समालोचकों से बार-बार यह कहते रहे कि उन्होंने जिस असहयोग आन्दोलन की कल्पना की है वह वास्तव में आत्मशुद्धि का आन्दोलन है।

यह एक बहुत ही कठिन काम था कि देश की जनता एक ओर ब्रिटिश सरकार के दोषों और दूसरी ओर अपने बीच फैली हुई बुराइयों को एक साथ ठीक-ठीक अनुभव कर पाती। लोगों के स्वभाव, स्वार्थ और दृष्टिकोण भी अलग-अलग थे। गांधीजी ने सविनय अवज्ञा और असहयोग की जो सैद्धान्तिक संगति थोरो के विचारों के आधार पर अपने मन में स्पष्ट कर ली थी, उसे एकाएक तो देश की पढ़ी-लिखी जनता भी समझने में असमर्थ थी; किन्तु गांधीजी की यह बड़ी खूबी थी कि वे अपने श्रोताओं से एकरस हो जाते थे और ऐसी भाषा में उनसे बातचीत करते थे जो उनकी पहुँच के बाहर न हो। अंग्रेजी पढ़े-लिखे दक्षिण भारतीय, उत्तर के मुसलमान, गुजरात की धार्मिक वैष्णव स्त्रियाँ, विश्वविद्यालयों के विद्यार्थी और शिक्षक, कोई भी क्यों न हो वे उनके दृष्टिकोण के अनुकूल सभी कों अपनी बात समझाने में समर्थ हो जाते थे। फलस्वरूप देखते ही-देखते गांधीजी देश के शिक्षित वर्ग और सामान्य जनता के मार्गदर्शक बन गये। गांधीजी ने अपनी इस स्थिति का लाभ उठाकर कांग्रेस को शक्तिशाली और क्रान्तिकारी परिवर्तन करने का साधन बना डाला। नरसिंह चिन्तामण केलकरको २ जुलाई, १९२० के अपने पत्र में उन्होंने लिखा: "मैंने कांग्रेस को ऐसा प्रातिनिधिक स्वरूप देने का प्रयास किया है