पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 18.pdf/१२

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जिससे उसके द्वारा पास की गई माँगें माननी ही पड़ें।" भले ही कांग्रेसके संशोधित विधानसे यह उद्देश्य पूरी तरह सफल न हुआ हो, किन्तु विधानके संशोधन और अपने प्रति जनताकी जबरदस्त श्रद्धाके कारण गांधीजीने कांग्रेसका रूप ही बदल दिया।

गांधीजीका ब्रिटिश साम्राज्य विरोधी दौरा उत्तर भारतसे शुरू हुआ। अमृतसर, लाहौर, रावलपिंडी,कराची और हैदराबाद (सिन्ध); एकके बाद दूसरी जगह उन्होंने लोगोंसे असहयोग आन्दोलनमें सक्रिय भाग लेनेकी अपील की। असहयोगके उनके कार्यक्रममें युवराजके आगमनका बहिष्कार, स्कूल, अदालतें, कौंसिलें, पदवियाँ और तमगे आदि छुड़ाना तो था ही; इसमें विदेशी कपड़े, सरकारको कर्जके रूप में पैसे देने और फौजमें भरती होने तकका बहिष्कार शामिल था। खादी और स्वदेशीको अपनाना इसका विधायक पहलू था। मुस्लिम जनताको अहिंसाके सिद्धान्तपर राजी करना आसान नहीं था, इसलिए उन्होंने हिंसाके क्या-कुछ अशुभ परिणाम हो सकते हैं, यह बतलाने के साथ-साथ यह भी बतलाया कि निहत्थे रहकर मृत्युका सामना करना कितनी बड़ी वीरता है। उदाहरणके लिए उन्होंने रावलपिंडीमें कहा: "मुझे तो लगता है कि अगर आप तलवारका उपयोग करेंगे तो आपको पराजय ही मिलेगी। इतना ही नहीं, वह तलवार उलटकर आपके ही भाइयों और बहनोंकी गर्दनपर पड़ेगी...[इसलिए हम] सरकारसे बुलन्द आवाज़में कहेंगे कि चाहे हमें फाँसी दो या जेल, आपको हमारा सहयोग नहीं मिल सकता।"

मद्रासके अपने एक भाषणमें उन्होंने इससे कुछ अलग स्वरमें, लगभग एक द्रष्टाकीसी वाणीमें कहा: "जिस क्षण भारत तलवारके सिद्धान्तको स्वीकार कर लेगा, उसी क्षण भारतीयके रूपमें मेरे जीवनका अन्त हो जायेगा। ऐसा इसलिए कि मैं मानता हूँ, भारतको दुनियाको एक सन्देश देना है, और इसलिए कि मेरे विचारसे हमारे प्राचीन पुरुषोंने सदियोंके अनुभवके बाद यह निष्कर्ष निकाला है कि इस धरतीके किसी भी मनुष्यके लिए हिंसापर आधारित न्याय सच्ची चीज नहीं है, बल्कि सच्ची चीज आत्म-बलिदानपर आधारित यज्ञ और कुर्बानीसे प्राप्त किया गया न्याय है। इस सिद्धान्त में मेरी अटूट आस्था है और अन्ततक रहेगी...मैं अंग्रेजोंका विरोधी नहीं हूँ, ब्रिटेनका विरोधी नहीं हूँ, और न अन्य किसी सरकारका विरोधी हूँ। मैं विरोधी हूँ असत्यका, विरोधी हूँ पाखण्डका, विरोधी हूँ अन्यायका। जबतक सरकार अन्याय करनेपर तुली हुई है, तबतक वह मुझे अपना शत्रु माने—प्रचण्ड शत्रु माने।... अगर मैं इस प्रयासमें मर भी जाऊँ तो जीवित रहकर अपने सिद्धान्तसे डिग जानकी अपेक्षा यह मृत्यु अधिक श्रेयस्कर है।...ईश्वर भारतकी जनताको सच्चा रास्ता दिखाये, सच्ची दृष्टि दे और उसे बलिदानके इस कठिन तथापि सुगम मार्गका अनुसरण करनेकी योग्यता और साहस दे।"

अपने इस विश्वासको 'खड्ग-बलका सिद्धान्त' नामक लेख लिखते हुए उन्होंने 'यंग इंडिया' में सशक्त और तुली हुई भाषामें पेश किया है: "जैसे पशु-जगत्का नियम हिंसा है वैसे ही मनुष्य जातिका नियम अहिंसा है...इसलिए मैंने भारतके सामने आत्म-बलिदानका प्राचीन नियम रखनेका साहस किया है। सत्याग्रह और उसकी