बाधक बनता है और सभी विषयोंके अध्ययनसे, विशेषतः इतिहासके अध्ययनसे, विद्यार्थियों का दृष्टिकोण अंग्रेज और अंग्रेजियतके पक्ष में बनता रहता है। अभिभावकोंकी उपेक्षा करके भी गांधीजी विद्यार्थियोंसे अपील किया करते थे कि १६ वर्षसे अधिक आयुके प्रत्येक विद्यार्थीको अपना जीवन-पथ चुननेकी स्वतन्त्रता है। अलबत्ता वे यह भी कहते थे कि जो विद्यार्थी संस्थाएँ छोड़ना चाहें, वे स्वयं-अनुशासन और विनयशीलताको कदापि न छोड़ें। तथापि कुल मिलाकर इनका असर जवानोंपर यही पड़ा कि वे अच्छी-बुरी हर तरहकी सत्ताके प्रति अपेक्षाकृत कम विनयशील हो गये। सरकारी शैक्षणिक संस्थाओंके बहिष्कारके साथ-साथ गांधीजीने शिक्षाके क्षेत्र में रचनात्मक प्रयत्न भी किया। अक्तूबर १९२० में अहमदाबाद में गुजरात विद्यापीठके नामसे एक राष्ट्रीय विश्वविद्यालयकी स्थापना की गई। विद्यार्थियोंकी सभा में विद्यापीठके कुलपतिकी हैसियत से १५ नवम्बर, १९२० को दिया गया उनका उद्घाटन-भाषण शिक्षाके सम्बन्धमें उनके विचारोंका एक संक्षिप्त किन्तु सम्यक् निरूपण है।
असहयोग आन्दोलन १ अगस्तको प्रारम्भ किया जाना था। स्वयं गांधीजीने इसका श्रीगणेश "पत्रः वाइसरायको" (११४-१५) लिखते हुए उसके साथ ही जुलू तथा बोअर युद्धोंमें अपनी सेवाओंके लिए दिये गये "कैसरे हिन्द" तथा अन्य पदक वापस करते हुए किया। दुर्भाग्यकी बात कहिए कि इसी दिन लोकमान्य तिलक हमारे बीचसे उठ गये। गांधीजीने तिलककी देशभक्ति और देश-सेवाका बखान करते हुए जो प्रेरणापूर्ण शब्द लिखे, वे १२०-२२ पृष्ठोंपर देखे जा सकते हैं। तिलकके निधनके बाद गांधीजीके सिवा देश के सामने कोई और बड़ा पथप्रदर्शक नहीं बचा। उस वर्षके कलकत्ताके एक विशिष्ट कांग्रेस अधिवेशन में असहयोगका कार्यक्रम स्वीकृत किया गया। हमारे इस खण्डका अन्त गांधीजीकी उस दृढ़ घोषणा के साथ होता है जो उन्होंने असहयोग आन्दोलन से सम्बन्धित सरकारके वक्तव्यके जवाब में की थी: "परन्तु जहाँतक में राष्ट्रके मनको जानता हूँ...जबतक पश्चात्तापकी यह भावना उत्पन्न नहीं होगी...अहिंसात्मक असहयोग इस देशका धर्म बना रहेगा और अवश्य रहना चाहिए।"