शाखाएँ, अर्थात् असहयोग और सविनय अवज्ञा, ये सब-कुछ कष्ट-सहनके नियमके ही नये-नये नाम हैं।...हमारे अस्तित्वको सार्थक बनानेवाले इस नियमका अनुसरण करके कोई अकेला व्यक्ति भी अपने सम्मान, अपने धर्म और अपनी आत्माकी रक्षा करनेके लिए एक समूचे अन्यायी साम्राज्यकी समस्त शक्तिको चनौती दे सकता है और उस साम्राज्यके पतन या पुनरुद्धारका कारण बन सकता है।...मैं चाहता हूँ कि भारतको इसकी प्रतीति हो जाये कि उसके पास एक आत्मा भी है जिसका कभी नाश नहीं हो सकता, और जो समस्त शारीरिक दुर्बलताओंसे ऊपर उठकर समस्त संसारके संयुक्त भौतिक बलको चुनौती दे सकती है।...जिस समय भारत खड्ग-बलके सिद्धान्तको स्वीकार कर लेगा, वह मेरी परीक्षाकी घड़ी होगी। और इस कसौटीपर मैं खरा ही सिद्ध होऊँगा। मेरा धर्म भौगोलिक सीमाओंसे बँधा हुआ नहीं है। अगर उसमें मेरा विश्वास सच्चा और सजीव है, तो वह भारतके प्रति मेरे प्रेमकी सीमाओंको लाँघ जायेगा।" 'असहयोग एक धार्मिक आन्दोलन' नामक लेखमें उन्होंने पाश्चात्य सभ्यताको 'तामसी शक्तियोंका प्रतिनिधि' और असहयोगको 'प्रकाशकी शक्ति' कहा है।
इसी विषयपर गांधीजी जब 'नवजीवन' में लिखते थे तो वे अपनी बात दूसरे प्रकारसे कहते थे। इसी प्रकार जब वे ऐसे श्रोताओंके सामने बोलते थे जिनका धार्मिक दष्टिकोण उनके जैसा था, तब भी वे अपनी बात इससे भिन्न स्वरमें कहते थे। रामायणमें वर्णित युद्धको वे सत्त्व और तमसके बीचका युद्ध कहते थे। वे कहते थे कि आत्मत्याग और आत्मानुशासनके द्वारा पवित्रीकृत राम सत्त्वके प्रतीक हैं तथा विलास और स्वेच्छाचारिताके पथपर चलनेवाला रावण तमसका प्रतीक है। ब्रिटिश सरकारको वे रावणराज्य कहते थे और अपने आदर्श के अनुरूप स्वराज्यको 'रामराज्य'। कुसंग व्यक्तिको गिरा देता है, इस देशकी यह परम्परागत भावना है। गांधीजी इस भावनाका ध्यान दिलाते और लोगोंसे कहते कि भारतमें ब्रिटिश सरकारका बहिष्कार और उसके जरिये मिलनेवाले अनुग्रह और लाभको अस्वीकृत कर दिया जाना चाहिए। स्त्रियोंको वे सीताका उदाहरण देकर समझाते कि सीताने अत्याचारी रावणके हाथों बड़ीसे-बड़ी भेंटको भी तुच्छ समझकर ठुकरा दिया था। परम्पराका सहारा लेकर अपनी बातोंको इस प्रकार समझानेके कारण गांधीजीका वास्तविक प्रगतिशील दष्टिकोण कभी-कभी धुँधला पड़ जाता था और कई लोग उन्हें जिस रूपमें देखना चाहिए, उस रूपमें नहीं देख पाते थे।
असहयोग आन्दोलनका सबसे अधिक बहस-तलब भाग रहा गांधीजीका विद्यार्थियों सें स्कूल और कालेज छोड़नकी बात कहना। गांधीजीका कहना था कि यदि उनकी बात मान ली जाये तो सरकारको हमारे ऊपर राज्य चलानेवाले कर्मचारी मिलना बन्द हो जायेगा और साथ ही गुलामीकी शिक्षाके अन्य भयंकर फलोंसे भी हमें मुक्ति मिल जायेगी। उनका कथन था अंग्रेजों द्वारा रूढ़ शिक्षा-पद्धतिका जोर मस्तिष्कके प्रशिक्षणपर है और उसमें नैतिक प्रशिक्षणकी पूरी अवहेलना की गई है। इसके सिवाय शैक्षणिक संस्थाओं में व्याप्त वातावरण स्वतन्त्रता और ऋजुताके विकासमें