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पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 18.pdf/१९३

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भाषण : असहयोगपर

माता-पिता और असहयोग


मैंने एक और भी कठिन कदमका सुझाव दिया है———यह कि अपने बच्चोंको सरकारी स्कूलोंसे निकाल लेना चाहिए और कालेजके छात्रोंसे कालेज छोड़ देनेकी कहना चाहिए तथा सभी सरकारी अनुदान-प्राप्त स्कूलोंको खाली कर देना चाहिए। मैं और कुछ कह भी कैसे सकता था? मैं राष्ट्रकी भावनाकी गहराईकी थाह लेना चाहता हूँ। मैं जानना चाहता हूँ कि इस सवालपर मुसलमानोंकी भावना काफी गहरी है या नहीं। अगर उनकी भावना गहरी है तो वे क्षण-भरमें समझ जायेंगे कि जिस सरकारमें उन्होंने अपना सारा विश्वास खो दिया है, जिस सरकारपर उन्हें तनिक भी भरोसा नहीं है, उस सरकारके स्कूलोंमें अपने बच्चोंको पढ़ाना उनके लिए ठीक नहीं है। अगर मैं सरकारकी कोई सहायता नहीं करना चाहता तो उससे कोई सहायता स्वीकार कैसे कर सकता हूँ? मैं समझता हूँ कि स्कूल और कालेज सरकारके लिए क्लर्क और सरकारी कर्मचारी गढ़नेकी फैक्टरियाँ हैं। अगर मैं सरकारके साथ सहयोग बन्द करना चाहता हूँ तो मैं क्लर्क और अन्य सरकारी कर्मचारी गढ़नेकी इस बड़ी फैक्टरीको कोई भी सहायता नहीं दूँगा । आप इसे चाहे जिस दृष्टिकोणसे देखिए, लेकिन यह सम्भव नहीं है कि एक ओर तो आपको असहयोगके सिद्धान्तमें भी विश्वास हो, लेकिन साथ ही अपने बच्चोंको इन स्कूलोंमें भी भेजते रहें। ये दोनों बातें एक साथ चल सकना असम्भव है।

उपाधिधारियोंका कर्त्तव्य

मैंने इससे भी आगे बढ़कर एक और सुझाव दिया है। मैंने सुझाव दिया है कि हमारे खिताबयाफ्ता लोग अपने खिताब छोड़ दें। ये लोग इस सरकार द्वारा दिये गये खिताब और सम्मानसूचक पदवियाँ आदि कैसे रख सकते हैं? जब हम यह मानते थे कि हमारा राष्ट्रीय सम्मान ब्रिटिश सरकारके हाथोंमें सुरक्षित है तब ये उपाधियाँ और पदवियाँ सचमुच प्रतिष्ठाकी प्रतीक थीं। लेकिन अब जब कि हम सचमुच यह मानने लगे हैं कि इस सरकारसे हम न्याय नहीं प्राप्त कर सकते, ये प्रतिष्ठाकी नहीं, अप्रतिष्ठा और अपमानकी प्रतीक बन गई हैं। हर खिताबयाफ्ता व्यक्ति अपने खिताब और सम्मान-सूचक पदका उपभोग राष्ट्रके थातीदारकी हैसियतसे करता है, और सरकारके साथ सहयोग बन्द करनेके कार्यक्रमके इस प्रथम चरणमें उसे क्षण-भरका भी सोच-विचार किये बिना अपना खिताब, अपना पद छोड़ देना चाहिए। मैं अपने मुसलमान देशभाइयोंसे कहता हूँ कि अगर वे अपने इस प्राथमिक कर्त्तव्यमें चूक जाते हैं तो निश्चय ही वे असहयोगमें असफल रहेंगे। फिर अगर निस्तार हो सकेगा तो एक ही हालतमें कि साधारण जनता इन उच्चवर्गीय लोगोंकी परवाह न करके असहयोगका प्रश्न बिलकुल अपने हाथोंमें ले ले और स्वयं ही यह लड़ाई चलाये——ठीक वैसे ही जैसे फ्रांसीसी क्रान्तिके समय जनताने अपने नेताओंको एक ओर करके शासनतन्त्र खुद अपने हाथोंमें ले लिया था और फतहकी मंजिलकी ओर कूच कर दिया था। मैं क्रान्ति नहीं चाहता। मैं व्यवस्थित प्रगति चाहता हूँ। मैं व्यवस्थाहीन