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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

मनुष्य प्रेमसे दूसरे मनुष्यको अपने वशमें करता है तब वह अपने नियमके अधीन होकर आचरण करता है। इस समय वह देवता नहीं बन जाता। देवता अशरीरी होते हैं। वे पशु तथा मनुष्य दोनोंकी ही तरह आचरण करते हैं। देवता श्वेत भी हैं और अश्वेत भी। मनुष्य अनेक बार पशुबलका आचरण करता हुआ देखा जाता है; उसमें पाशविक शक्ति भी है और जबतक उसकी आत्माका विकास नहीं होता तबतक वह एक बुद्धिमान पशु होता है। मनुष्यका शरीर पानेपर भी वह मानवी नियमका अनुसरण न करके पशुके नियमके अनुसार चलता है। तथापि हम उसके इस आचरणको उसका जातीय स्वभाव नहीं कह सकते। अतएव मैं मानता हूँ कि यदि हमें स्वानुभूति हो जाये तो हम तत्क्षण पाशविक न्यायका त्याग कर दें।

लेकिन धर्मवेत्ताओंने यह देखा है कि अनेक मनुष्योंकी पाशविक वासनाएँ मनुष्य शरीर पानेपर भी मरती नहीं। इसलिए उन्होंने यह बात स्वीकार की है कि मनुष्य शरीरमें भी पशुबलको अवकाश है और बताया है कि किन परिस्थितियोंमें इसका उपयोग किया जा सकता है।

मनुष्य जब भयके कारण दूसरोंके वशमें रहता है तब वह कोई अपने स्वभावानुसार आचरण नहीं करता, वह तो पशुबलके अधीन रहता है। जो पशुबलसे दूसरोंको वशमें नहीं करना चाहता, वह पशुबलके अधीन होकर भी नहीं रह सकता। फलतः जो पशुबलसे डरता है उसको आत्मज्ञान नहीं हुआ है, ऐसा मानकर या जानकर शास्त्रोंने इस स्थितिमें पशुबलके उपयोगकी सलाह दी है।

सन् १९०८ में एक पठानने मुझपर घातक प्रहार किया था। उस समय मेरा बड़ा लड़का[१]मेरे पास न था। उसमें पर्याप्त शरीरबल था। मेरे जैसे विचार आज हैं वैसे ही उस समय भी थे इसलिए मैंने उस पठानपर मुकदमा दायर नहीं किया। अपने बच्चोंको भी उस समय मैं क्षमा——प्रेमबल——की शिक्षा दे रहा था। इसलिए इस प्रहारके बाद पहली बार मुलाकात होनेपर मेरे पुत्रने मुझसे कहा, "जिस समय आपपर हमला हुआ उस समय यदि मैं वहाँ होता तो मैं जानना चाहता हूँ कि मेरा क्या कर्त्तव्य होता? आपने हमें सिखाया है, यदि कोई मनुष्य हमें मारे तो उसके बदले हमें उसे मारना नहीं चाहिए और साथ ही उसकी इच्छाके अधीन भी नहीं होना चाहिए। इस सिद्धान्तको मैं समझता हूँ। लेकिन मुझमें वैसा आचरण करनेकी शक्ति नहीं है। मैं आपको मरता हुआ नहीं देख सकता। आपपर आक्रमण हो तो आपकी रक्षा करना मैं अपना कर्त्तव्य समझता हूँ; लेकिन मैं सिर्फ अपनी जान गँवाकर आपकी रक्षा नहीं कर सकता। इस स्थितिमें क्या मुझे आपपर प्रहार करनेवाले मनुष्यको मारना चाहिए अथवा आपपर जिस समय प्रहार किया जा रहा हो उस समय चुपचाप देखते रहना चाहिए अथवा वहाँसे भाग जाना चाहिए।" मैंने उसे उत्तर दिया: "तू भाग जाये अथवा मेरी रक्षा न करे यह तो अपौरुषकी निशानी है। यदि तू अपने जीवनको संकटमें डालकर मेरी रक्षा नहीं कर सकता तो तुझे अवश्य ही मारनेवालेके साथ लड़कर मेरी रक्षा करनी चाहिए। अपौरुषसे तो पशुबलका प्रयोग करना

  1. हरिलाल गांधी।