९६. तलवारका न्याय
मुझे उपदेश देनेवालोंकी कोई गिनती ही नहीं है। कोई मुझे अपना नाम बताकर पत्र लिखता है तो कोई अज्ञात नामसे ही तथा कोई स्वयं उपस्थित होकर अपनी सलाह दे जाता है। कोई लिखता है कि मैं कायर हूँ, तलवारसे डरता हूँ इसलिए मैं इस संसारमें कुछ नहीं कर सकता; और अपनी कायरताके कारण ही मैं बिना सोचे-समझे अहिंसाकी बात करता रहता हूँ। किसीका कहना है कि मेरे मनमें तो हिंसा ही भरी हुई है, मुझे खून करना भाता है; लेकिन मैं इतना "पक्का", इतना "धूर्त" हूँ कि अपने विचारोंको छिपाता हूँ और इस तरह ऊपर-ऊपरसे अहिंसाकी बात करते हुए मैं मन-ही-मन हिंसा करवाना चाहता हूँ। इन पक्षोंके अतिरिक्त एक पक्ष ऐसे लोगोंका भी है जो समझते हैं कि मैं धूर्त नहीं हूँ, सिर्फ अवसरकी बाट जोह रहा हूँ और अवसर मिलते ही तलवार चलानेकी सलाह दे दूँगा। वे मानते हैं कि आज वह अवसर आ गया है और अब मुझे जल्दी करनी चाहिए।
साधारणतया मुझे इन उपदेशकों द्वारा दी गई सलाहका उत्तर देनेमें अपना समय नहीं गँवाना चाहिए। यदि मुझे कोई धूर्त मानता है तो उसकी मुझे क्या परवाह अथवा चिन्ता हो सकती है? और फिर अपनी साधुताका समर्थन करने अथवा धूर्तताका खण्डन करनेमें मुझे 'नवजीवन' के पाठकोंका समय लेनेका क्या अधिकार है? अपना बचाव करनेकी दृष्टिसे तो निःसन्देह मुझे इस विवादमें न पड़ना चाहिए; लेकिन आजकल मेरी स्थिति ऐसी है कि आम लोग मेरे विचारोंको जाननेके लिए लालायित रहते हैं, मैं इस बातको जानता हूँ तथा मैं यह भी समझता हूँ कि मेरा आचरण मेरे विचारोंपर निर्भर करता है। इन्हीं लोगोंकी खातिर मैं अपनी स्थितिका स्पष्टीकरण करनेकी जरूरतको महसूस करता हूँ और एक बार फिर पाठकोंसे पशुबलके सम्बन्धमें अपने विचारोंको प्रस्तुत करनेकी अनुमति लेता हूँ।
तलवारका बल, पशुबल है। हिंसा करनेमें बुद्धिबलके प्रयोगकी आवश्यकता नहीं होती। बुद्धिको कुमार्गपर ले जाकर हम निःसन्देह पशुबलके लिए उसका उपयोग कर सकते हैं। लेकिन बुद्धिका उपयोग करनेपर भी पशुबल तो अन्ततः पशुबल ही रहता है और मारनेका सिद्धान्त तो पाशविक सिद्धान्त है। पशुमें आत्मा केवल मूढ़ावस्थामें होती है, पशुको आत्मज्ञान होता ही नहीं। इसीसे हम पशु-योनिको मूढ़ योनिकी संज्ञा देते हैं। खाना, पीना, सोना या डरना——ये क्रियाएँ मनुष्यों तथा पशुओं दोनोंमें समान होती हैं। लेकिन मनुष्योंमें सदसद् विवेक और आत्माको पहचाननेकी शक्ति है। एक पशु दूसरे पशुको अपने शरीरबलसे ही वशमें करता है। यह उसका जातीय नियम है; लेकिन मानव जातिका नियम यह नहीं है। मानव जातिका सहज स्वाभाविक नियम तो प्रेमबल——आत्मबलसे दूसरोंपर विजय प्राप्त करना है। अर्थात् जब कोई