कुर्सियोंपर बैठना जनताकी आवश्यकता नहीं है——इसलिए मैं तो व्यवस्थापकोंसे अनुरोध करूँगा कि वे बहुत ज्यादा जरूरी होनेपर ही थोड़ी-सी कुर्सियाँ रखकर बाकी लोगोंके लिए जमीनपर ही बैठनेकी व्यवस्था करें। यदि वे ऐसा करेंगे तो जनताका पैसा बचेगा तथा थोड़ी जगहमें बहुत सारे लोग समा सकेंगे। मैं अभी-अभी हैदराबादमें खिलाफतके सम्बन्धमें हुई एक सभामें भाग लेकर लौटा हूँ। वहाँ सहस्रों मुसलमान——पीर, वकील-बैरिस्टर, पाटीदार आदि——आरामसे भूमिपर बैठे हुए भले लग रहे थे। मिट्टीका अस्थायी मंच बनाया गया था; उसीपर प्रमुख व्यक्ति पालथी लगाकर बैठे हुए थे। अध्यक्ष भी उसी मंचपर विराजमान थे। मंच बल्लियोंके आधारपर खड़ा किया गया था तथा ये बल्लियाँ लम्बी थीं। उसके अन्तमें अध्यक्षका स्थान था। इससे सब उनको देख सकते थे तथा वक्ता उनके एक ओर खड़े होकर भाषण देते थे। हजारों लोगोंके बैठनेके लिए यह मण्डप एक ही दिनमें बनाया गया था।
परिषद् में शोर न हो, भीड़ न हो, उसके लिए स्वयंसेवक पहलेसे प्रशिक्षित किये जाने चाहिए। वे सब एक स्थानपर एकत्रित खड़े रहनेके बदले निर्धारित स्थानपर रहें तो बन्दोबस्त हो सकता है। और अगर वे दूरीके कारण एक दूसरेतक अपनी आवाज़ न पहुँचा सकें तो उन्हें झंडियों आदिसे इशारा करके बात समझाना सीख लेना चाहिए।
नवजीवन, १५-८-१९२०
९९. भाषण : श्रमिकोंके अधिकारों तथा कर्त्तव्योंपर[१]
१५ अगस्त, १९२०
आशा है कि बैठे-बैठे बोलनेके लिए आप मुझे क्षमा कर देंगे। मेरी आवाज जैसी सालभर पहले थी उससे ज्यादा तेज हो गई है, लेकिन मेरा शरीर मेरी इच्छाके अनुकूल खड़े होकर बोलने लायक मजबूत नहीं हो पाया है। आपसे दोबारा मिलकर परिचय ताजा करते हुए मुझे बेहद खुशी हो रही है। मेरा खयाल है कि पिछले साल जब मुझे आपके सामने बोलनेका सौभाग्य मिला था मैंने आपको बताया था कि मैं अपनेको मजदूर, आपका साथी ही मानता हूँ। शायद आपने स्वेच्छासे नहीं, मजबूरीसे मजदूरी करना स्वीकार किया है। परन्तु मैं श्रमको बहुत श्रद्धाकी दृष्टिसे देखता हूँ। मेरे मनमें श्रमकी इतनी अधिक प्रतिष्ठा है कि मैंने मजदूरोंका-सा जीवन अपना लिया
- ↑ यह भाषण केन्द्रीय श्रम बोर्डके तत्वावधानमें मद्रासके समुद्र तटपर हुई एक सभामें दिया गया था, जिसकी अध्यक्षता बी॰ पी॰ वाडियाने की थी।