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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

न्यायप्रिय व्यक्तिका अन्यायी व्यक्तिसे सहयोग करना पाप है। और यदि हम इस शक्तिशाली सरकारको जनताकी इच्छाके आगे मजबूर करना चाहें, और ऐसा करना ही चाहिए, तो हमें असहयोगका महान् साधन अवश्य अपनाना होगा। यदि भारतके मुसलमान खिलाफतके मामलेमें न्याय हासिल करनेके लिए सरकारसे असहयोग करें तो उनके साधनोंके शुद्ध रहनेतक, मेरी समझमें हिन्दुओंका कर्त्तव्य है कि वे उनकी मदद करें। हिन्दुओं और मुसलमानोंके बीच टिकी रहनेवाली मित्रताको मैं ब्रिटिशोंके साथ अपने सम्बन्धोंसे अधिक महत्त्वपूर्ण मानता हूँ। भारतमें हिन्दुओं और मुसलमानोंके बीच बन्दूक चले, शस्त्रबलसे शान्ति स्थापित रहे, इसके बजाय मैं किसी भी दिन अराजकताको बेहतर मानता हूँ। इसलिए मैंने अपने हिन्दू भाइयोंको सुझाया है कि यदि वे मुसलमानोंके साथ शान्तिसे रहना चाहते हैं तो आज ऐसा अवसर प्राप्त है जो फिर आगे सौ वर्षोंमें नहीं मिलेगा। मैं आपको आश्वासन देता हूँ कि यदि भारत सरकार और साम्राज्यीय सरकारको पता चल जाये कि जनता इस दोहरे अन्यायको सही करानेके लिए कृतसंकल्प है तो वे जो जरूरी है उसे करनेमें आगा-पीछा नहीं करेंगे। परन्तु इस मामलेमें पहल भारतके मुसलमानोंको करनी होगी। आपको असहयोगके पहले चरणका कार्यक्रम पूरी लगनसे शुरू करना होगा। आप इस सरकारकी मदद न करें और इससे कोई मदद भी न लें। वे खिताब जो कल सम्मानसूचक थे, मेरी रायमें आज वे हमारी तौहीनीके बिल्ले हैं। इसलिए हमें सारे खिताब, सभी अवैतनिक पद त्याग देने चाहिए। जनताके नेताओं द्वारा ऐसा करना सरकारके कामोंके प्रति जनताकी विरोधी भावनाओंका बहुत जोरदार प्रदर्शन होगा। वकीलोंको अपनी वकालत अवश्य त्याग देनी चाहिए और सरकारकी उस ताकतका विरोध जरूर करना चाहिए, जिसने जनताकी रायके प्रतिकूल काम करनेका फैसला किया है। और न हमें उन स्कूलोंमें शिक्षण लेना चाहिए जो सरकारी नियन्त्रण या उसकी सहायता से चलते हैं। स्कूलोंको खाली कर देनेसे भारतके मध्य वर्गकी भावना प्रदर्शित होगी। राष्ट्र यदि अपने बच्चोंकी साहित्य- शिक्षाकी उपेक्षा कर दे तो भी यह उस सरकारके साथ सहयोग करनेकी अपेक्षा अच्छा होगा, जिसने खिलाफत और पंजाबके मामलोंमें अन्याय और झूठको बनाये रखनेकी कोशिश की है। इसी तरह मैंने नई सुधरी हुई कौंसिलोंका पूर्ण बहिष्कार करनेका सुझाव दिया है। इससे बखूबी जनताके प्रतिनिधियोंकी यह इच्छा जाहिर हो जायेगी कि जबतक ये दोनों अन्याय कायम हैं वे सरकारसे तबतक सहयोग नहीं करना चाहते। इसी तरह हमें पुलिस और सेनामें भरती होनेसे इनकार करना चाहिए। हमारे लिए पुलिस और सेनामें भरती होकर मेसोपोटामिया जाना या उस सरकारके खूनी कृत्यमें हाथ बँटाना असम्भव है। असहयोगके प्रथम चरणका अन्तिम सोपान स्वदेशी है। स्वदेशीका उद्देश्य सरकारपर दबाव डालना उतना नहीं जितना उसका उद्देश्य भारतके स्त्री-पुरुषोंकी त्याग कर सकनेकी क्षमताका प्रदर्शन करना है। जब एक चौथाई भारतका धर्म और पूरे भारतका सम्मान संकटमें है, तब फ्रांसकी छींट या जापानके रेशमसे सजने-सँवरनेके लिए हमारा जी ही नहीं कर सकता। हमें भारतके गरीब बुनकरोंके बुने हुए, उसी कपड़ेसे सन्तुष्ट होनेका निश्चय कर लेना