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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय


अपनी यात्राके दौरान हमें बहुत-से मानपत्र दिये गये हैं, लेकिन मेरी नम्र सम्मतिमें कसरगोड़में हमें दिये गये मानपत्रमें शब्दों और भावोंका जैसा सन्तुलित प्रयोग किया गया वैसा और कहीं नहीं हुआ। इसमें हम दोनोंको "प्रिय और पूज्य बन्धु" कहकर सम्बोधित किया गया था। यह दूसरा विशेषण——यानी "पूज्य"——स्वीकार करनेमें मैं असमर्थ हूँ। लेकिन मैं स्वीकार करूँगा कि "प्रिय" शब्द मुझे बहुत प्रिय है। लेकिन उससे भी अधिक प्रिय मुझे "बन्धु" शब्द है। उस मानपत्रके हस्ताक्षर- कर्त्ताओंने हमारी यात्राके असली महत्त्वको समझा है। किन्हीं भी दो सहोदर भाइयोंका सम्बन्ध शायद उतना घनिष्ठ नहीं हो सकता जितना कि भाई शौकत अलीका और मेरा है, कोई भी सहोदर भाई एक उद्देश्य, एक लक्ष्यके लिए कदाचित उतने एक होकर काम नहीं कर सकते जितना कि वे और मैं। और मैंने शौकत अलीको सहोदर कहकर पुकारा जाना अपने लिए गौरव और सम्मानकी बात माना। मानपत्रकी विषय-वस्तु भी उतनी ही महत्त्वपूर्ण थी। उसमें कहा गया था कि हम दोनोंका एक होकर काम करना भारतके मुसलमानों और हिन्दुओंकी एकताके मर्मका प्रतीक है। अगर हम दोनों इस अत्यन्त वांछनीय एकताको अपने आचरण द्वारा मूर्तिमान नहीं कर सकते, अगर हम दोनों इन दो जातियोंके सम्बन्धोंको सुदृढ़ नहीं कर सकते तो मैं नहीं जानता कि यह काम और कौन कर सकता है। इसके बाद बिना किसी अलंकार-अतिरंजनाके उसमें पंजाब तथा खिलाफत-सम्बन्धी संघर्षोके अन्तःस्वरूपका वर्णन किया गया था और फिर बहुत ही सादी और सुन्दर भाषामें सत्याग्रह और असहयोगके आध्यात्मिक महत्त्वका वर्णन था। इसके आगे बहुत ही स्पष्ट शब्दोंमें एक सीधा-सा वचन दिया गया था कि यद्यपि मानपत्रपर हस्ताक्षर करनेवाले लोग हमारे द्वारा प्रारम्भ किये गये संघर्षके महत्वको समझते हैं और यद्यपि संघर्षके साथ उनकी हार्दिक सहानुभूति है, फिर भी अन्ततः यही कहेंगे कि यदि वे हर तफसीलकी दृष्टिसे असहयोगका पालन न भी कर पायें तो कमसे-कम इतना अवश्य करेंगे कि इस संघर्षमें वे अपनी शक्ति-भर पूरी सहायता देंगे। और अन्तमें उन्होंने बहुत ही जोरदार और युक्तिसंगत शब्दोंमें कहा था, "अगर हम अपने-आपको अवसरके अनुरूप सिद्ध नहीं कर पाये तो उसका कारण यह नहीं होगा कि हमने कोशिश नहीं की, बल्कि यह कि हममें उतनी योग्यता नहीं थी।" मैं इससे अच्छे मानपत्रकी कामना नहीं कर सकता, इससे अधिक और कोई वचन नहीं चाहता और अगर आप मंगलौरके नागरिक इस मानपत्रके हस्ताक्षरकर्त्ताओंकी ऊँचाईतक उठ सकें और मुझे सिर्फ इतना भरोसा दिला दें कि आप इस संघर्षको ठीक मानते हैं और इससे आपकी पूरी सहमति है तो मुझे विश्वास है कि आप अपनी शक्ति-भर पूरा बलिदान करनेको तैयार रहेंगे। कारण आज हम जिस संकटसे घिरे हुए हैं, वह संकट महामारी, इनफ्लुएंजा, भूकम्प और भयंकर बाढ़ आदि उन दैवी प्रकोपोंसे कहीं अधिक गम्भीर है जो हमें समय-समयपर सहने पड़ते हैं। ये जो प्राकृतिक आपदाएँ हैं वे तो थोड़े-बहुत भारतीयोंकी जान ही ले सकती हैं। लेकिन भारत जिस आपदासे इस समय घिरा हुआ है वह आपदा तो उसकी एक चौथाई सन्तानोंकी धार्मिक भावनाको चोट