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पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 18.pdf/२४८

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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

हिन्दुस्तानकी आबादीका तीन-चौथाई भाग एक-चौथाई भागसे वैर रखकर कभी भी स्वतन्त्रताका उपभोग नहीं कर सकता तथा सात करोड़ मुसलमानोंका उन्मूलन भी उतना ही असम्भव है।

अनेक हिन्दू मानते हैं कि अंग्रेजी राज्यसे हिन्दू धर्मकी रक्षा होती है; इसलिए ब्रिटिश साम्राज्यसे भले ही और नुकसान होता हो लेकिन इससे होनेवाला हिन्दू धर्मकी रक्षाका लाभ ऐसा है जिससे उस सारे नुकसानकी भरपाई हो जाती है। हिन्दुओंके लिए इससे अधिक लज्जास्पद विचार मुझे तो और कोई नहीं लगता। यदि तेईस करोड़ हिन्दू सात करोड़ मुसलमानोंके विरुद्ध अपना बचाव करनेमें सक्षम नहीं हैं तो इसमें या तो हिन्दू धर्मका दोष है अथवा उसके अनुयायी नामर्द या अधर्मी होने चाहिए।

अंग्रेज सरकार तलवारके जोरसे हिन्दू-मुसलमानोंके बीच कृत्रिम एकता बनाये रखे, इसकी अपेक्षा मैं यह अधिक पसन्द करूँगा कि हिन्दू-मुसलमान परस्पर तलवारसे मुकाबला करके अपना मामला तय कर लें।

लेकिन यदि हम तलवारसे मुसलमानोंका सामना न करना चाहते हों, यदि हम उनके साथ सहोदरकी तरह रहना चाहते हों, यदि हम उनके मनको चुराकर मित्रभावसे गायोंकी, अपने मन्दिरोंकी तथा अपनी स्त्रियोंकी रक्षा करना चाहते हों तो हमें आज जो सुअवसर प्राप्त हुआ है उसका स्वागत करना चाहिए। बादमें ऐसा योग सौ वर्षतक नहीं आयेगा।

मियाँ और महादेवकी कभी नहीं पट सकती, ऐसा मानना गलत है। इतिहासमें आपको मुसलमानोंके अन्यायके अनेक उदाहरण मिलेंगे; लेकिन इस्लाम भले लोगोंका धर्म है। मुसलमान भले लोग हैं। उनमें दूसरोंके प्रति सम्मान-भाव नहीं, दया नहीं——ऐसा मैं नहीं मानता। वे अपने ऊपर किये गये उपकारोंका बदला देना जानते हैं। फलतः मैं तो हिन्दुओंको सलाह देता हूँ कि उन्हें मुसलमान भाइयोंका विश्वास करना चाहिए। मनुष्य-मात्र स्वभावतः निर्मल होता है; मुसलमान भी इस नियमके अपवाद नहीं हैं।

आजतक हमने परस्पर एकता स्थापित करनेका सज्जनोचित प्रयत्न नहीं किया है। ऐसे प्रयत्नमें बदलेकी अपेक्षा नहीं होती; यह कोई बनियेका सौदा नहीं होता। मुसलमानोंको शर्तोंके साथ मदद देना, मदद न देनेके समान है। सात करोड़ लोगोंका मन शर्तोंसे नहीं बदला जा सकता। उनका विश्वास, उनका मान तो आड़े समयमें उनकी मदद करके ही प्राप्त किया जा सकता है। बदला केवल ईश्वरसे ही माँगना चाहिए। मेरा हिन्दू धर्म मुझे सिखाता है कि अच्छा कार्य करते समय फलकी आशा नहीं रखनी चाहिए, लेकिन अच्छे कार्यका परिणाम अच्छा ही होगा, ऐसी आशा रखनी चाहिए। यह अनिवार्य नियम है, ऐसा जानते हुए भी यदि हमें इससे उलटा दृष्टान्त दिखाई दे तो यह मानना चाहिए कि हम अपनी अल्पबुद्धिके कारण इस विरोधाभासको समझनेमें असमर्थ हैं। वह अपवादरूप है, ऐसा माननेका कोई कारण नहीं है। ईश्वर हमेशा मनुष्यको भारी कसोटीपर कसता है। जो विकट संकटमें