क्यों घबरा जाते हैं? जेलके दुःखको मैं बड़ा दुःख नहीं मानता। ऐसी दीनताका कारण हमारी गुलामी है। एक अरसेसे हम गुलामीकी अधम स्थितिमें रहते-रहते यह भूल गये हैं कि सच्ची स्वतन्त्रता क्या होती है। फलतः जेलसे बाहर रहते हुए हमें मान मिले या न मिले, हमारा धर्म रहे या जाये लेकिन हम कुछ हदतक अपनी शारीरिक स्वतन्त्रताका उपभोग कर सकते हैं और इतने-भरसे सन्तुष्ट रहते हैं तथा इससे विशेषकी आकांक्षा नहीं रखते। परिणामतः जब शरीरको दुःख देकर आत्माको मुक्त करनेकी बात आती है तब हम कायरोंके समान आचरण करने लगते हैं।
हम वर्षोंसे गुलाम हैं; इतना ही नहीं इस गुलामीमें हम सुख-सुविधाका अनुभव करने लगे हैं। अंग्रेजी राज्यमें कुछ-एक लोगोंको ऐश-आराम करनेका अवसर मिल रहा है, इसमें कोई सन्देह नहीं। जिस तरह चूहा रोटीके टुकड़ेको देखकर लोभवश चूहेदानमें चला जाता है या मछली आटेकी गोलीको देख जालमें फँस जाती है, उसी तरह हम भी कुछ-एक व्यक्तियोंको मिलनेवाले ऐश-आरामसे लुब्ध होकर अपनी स्वतन्त्रता खो बैठते हैं।
पीर महबूब शाहके किस्सेसे हमें पस्त होकर नहीं बैठना है, बल्कि जिन परिस्थितियोंमें दृढ़ पुरुष भी अपने ध्येयसे विचलित हो जाते हैं उन परिस्थितियोंको बदलनेके प्रयत्न हमें दूने कर देने चाहिए। हमें अपनी पराधीनावस्थाको पहचानना चाहिए और उससे मुक्ति प्राप्त करनेके लिए शारीरिक सुखको त्यागकर अर्थात् ऐश-आरामको तिलांजलि देकर जेलके दुःखोंको निर्भय होकर गले लगाना चाहिए।
और फिर एक गाड़ीमें जुते हुए अनेक बैलोंमें से एकके बीमार अथवा थक जानेपर जिस तरह अन्य बैल उसका भार वहन कर लेते हैं उसी तरह हमें भी एक महबूब शाह के गिरनेसे उनके बोझको अपने कन्धोंपर उठा लेनीकी क्षमता रखनी चाहिए।
हमें प्राप्त होनेवाली विजय साधारण नहीं है; और ठीक इसी तरह हमें जिस सरकारसे जूझना है वह भी साधारण नहीं है। वह गुणों और अवगुणों, दोनोंका ही समाहार है। वह बहादुर है, संगठित है, उसमें ज्ञान है, योजना-बुद्धि है, आत्म-बलिदान करनेकी शक्ति है फिर वह नास्तिक है, दम्भी है एवं छल-कपटसे भरी हुई है। वह प्रलोभन देती है, फुसलाती है, भय दिखाती है, वह वीर होनेके कारण वीरताको पहचानती है और उसके वशीभूत होती है। फलस्वरूप यदि हम उसे परास्त करना चाहते हैं तो हमें उससे अधिक बहादुर बनना होगा। वह संगठित है, हमें परस्पर उससे कहीं अधिक संगठित होना चाहिए, उसके ज्ञानकी अपेक्षा हमारा ज्ञान अधिक शुद्ध होना चाहिए, उसकी योजना-शक्तिको हमें लज्जित करना चाहिए, उसमें आत्म-बलिदान करनेकी जो क्षमता है उससे कहीं अधिक क्षमता हममें होनी चाहिए। उसकी नास्तिकताको हम अपनी आस्तिकतासे, उसके दम्भको अपनी सरलतासे, छल-कपटको सचाईसे पराजित करें; उसकी पदवियों आदिके प्रलोभनोंसे दूर भागें, उसके सुधारों अथवा ऊँचे ओहदोंके फंदेमें न फँसें और न डायर या जॉन्सनके भयसे भयभीत हों।
'न नौ मन तेल होगा न राधा नाचेगी' यह विचार करके हमें निराश नहीं होना चाहिए। स्वतन्त्रता प्राप्त करनेका अर्थ उपर्युक्त शक्तियोंको संचित करना ही